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[पञ्चतन्त्र
 


संजीवक—"दमनक! यह बात तो सच है, किन्तु मुझे यह कैसे पता लगेगा कि पिंगलक के मन में मेरे लिये हिंसा के भाव हैं। आज तक वह मुझे सदा स्नेह की दृष्टि से देखता रहा है। उसकी वक्रदृष्टि का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। मुझे उसके लक्षण बतला दो तो मैं उन्हें जानकर आत्म-रक्षा के लिये तैयार हो जाऊँगा।"

दमनक—"उन्हें जानना कुछ भी कठिन नहीं है। यदि उसके मन में तुम्हें मारने का पाप होगा तो उसकी आँखें लाल हो जायँगी, भवें चढ़ जाएँगी और वह होठों को चाटता हुआ तुम्हारी ओर क्रूर दृष्टि से देखेगा। अच्छा तो यह है कि तुम रातों-रात चुपके से चले जाओ। आगे तुम्हारी इच्छा।"

यह कहकर दमनक अपने साथी करटक के पास आया। करटक ने उससे भेंट करते हुए पूछा—"कहो दमनक! कुछ सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में?"

दमनक—"मैंने तो नीतिपूर्वक जो कुछ भी करना उचित था कर दिया, आगे सफलता दैव के अधीन है। पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि कार्यसिद्धि न हो तो हमारा दोष नहीं।"

करटक—"तेरी क्या योजना है? किस तरह नीतियुक्त काम किया है तूने? मुझे भी बता।"

दमनक—"मैंने झूठ बोलकर दोनों को एक दूसरे का ऐसा