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मित्रभेद]
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मित्र बना रहा। एक क्षण के लिये भी वह शेर को छोड़कर नहीं जाता था।

एक दिन उस जंगल में एक मतवाला हाथी आ गया। उससे शेर की ज़बर्दस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में शेर इतना घायल हो गया कि उसके लिये एक क़दम आगे चलना भी भारी हो गया। अपने साथियों से उसने कहा कि "तुम कोई ऐसा शिकार ले आओ जिसे मैं यहाँ बैठा-बैठा ही मार दूं।" तीनों साथी शेर की आज्ञा अनुसार शिकार की तलाश करते रहे—लेकिन बहुत यत्न करने पर भी कोई शिकार हाथ नहीं आया।

चतुरक ने सोचा, यदि शंकुकर्ण को मरवा दिया जाय तो कुछ दिन की निश्चिन्तता हो जाय। किन्तु शेर ने इसे अभय वचन दिया है; कोई युक्ति ऐसी निकालनी चाहिये कि वह वचन-भंग किये बिना इसे मारने को तैयार हो जाय।

अन्त में चतुरक ने एक युक्ति सोच ली। शंकुकर्ण को वह बोला—"शंकुकर्ण! मैं तुझे एक बात तेरे लाभ की ही कहता हूँ। स्वामी का भी इसमें कल्याण हो जायगा। हमारा स्वामी शेर कई दिन से भूखा है। उसे यदि तू अपना शरीर देदे तो वह कुछ दिन बाद दुगना होकर तुझे मिल जायगा, और शेर को भी तृप्ति हो जायगी।"

शंकुकर्ण—"मित्र! शेर की तृप्ति में तो मेरी भी प्रसन्नता है। स्वामी को कह दो कि मैं इसके लिये तैयार हूँ। किन्तु, इस सौदे में धर्म हमारा साक्षी होगा।"