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१६.

मित्र-द्रोह का फल

'किं करोत्येव पाण्डित्यमस्थाने विनियोजितम्'


अयोग्य को मिले ज्ञान का फल विपरीत ही होता है।

किसी स्थान पर धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे। एक दिन पापबुद्धि ने सोचा कि धर्मबुद्धि की सहायता से विदेश में जाकर धन पैदा किया जाय। दोनों ने देश-देशान्तरों में घूमकर प्रचुर धन पैदा किया। जब वे वापिस आ रहे थे तो गाँव के पास आकर पापबुद्धि ने सलाह दी कि इतने धन को बन्धुवान्धवों के बीच नहीं ले जाना चाहिये। इसे देखकर उन्हें ईर्ष्या होगी, लोभ होगा। किसी न किसी बहाने वे बाँटकर खाने का यत्न करेंगे। इसलिये इस धन का बड़ा भाग ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब ज़रूरत होगी, लेते रहेंगे।

धर्मबुद्धि यह बात मान गया। ज़मीन में गड्‌ढ़ा खोद कर दोनों ने अपना सञ्चित धन वहाँ रख दिया और गाँव में चले आए।

कुछ दिन बाद पापबुद्धि आधी रात को उसी स्थान पर जाकर

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