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मित्रभेद]
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सारा धन खोद लाया और ऊपर से मिट्टी डालकर गड्‌ढा भरकर घर चला आया।

दूसरे दिन वह धर्मबुद्धि के पास गया और कहा—"मित्र! मेरा परिवार बड़ा है। मुझे फिर कुछ धन की ज़रूरत पड़ गई है। चलो, चलकर थोड़ा-थोड़ा और ले आवें।"

धर्मबुद्धि मान गया। दोनों ने जाकर जब ज़मीन खोदी और वह बर्तन निकाला, जिस में धन रखा था, तो देखा कि वह खाली है। पापबुद्धि सिर पीटकर रोने लगा—"मैं लुट गया, धर्मबुद्धि ने मेरा धन चुरा लिया, मैं मर गया, लुट गया...।"

दोनों अदालत में धर्माधिकारी के सामने पेश हुए। पापबुद्धि ने कहा—"मैं गड्‌ढे के पास वाले वृक्षों को साक्षी मानने को तैयार हूँ। वे जिसे चोर कहेंगे, वह चोर माना जाएगा।"

अदालत ने यह बात मान ली, और निश्चय किया कि कल वृक्षों की साक्षी ली जायगी और उस साक्षी पर ही निर्णय सुनाया जायगा।

रात को पापबुद्धि ने अपने पिता से कहा—"तुम अभी गड्‌ढे के पास वाले वृक्ष की खोखली जड़ में बैठ जाओ। जब धर्माधिकारी पूछे तो कह देना कि चोर धर्मबुद्धि है।"

उसके पिता ने यही किया। वह सुबह होने से पहले ही वहाँ जाकर बैठ गया।

धर्माधिकारी ने जब ऊँचे स्वर से पुकारा—"हे वनदेवता! तुम्ही साक्षी दो कि इन दोनों में चोर कौन है?"

तब वृक्ष की जड़ में बैठे हुए पापबुद्धि के पिता ने कहा—"धर्मबुद्धि चोर है, उसने ही धन चुराया है।"