पृष्ठ:पउमचरिउ.djvu/१७०

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INTRODUCTION 1:27 110. Sandhi, last Kadavaka, Ghattā and colophon. 82. सव्वु सुयङगुणाणु जिण-अक्खिउ, भव्व-सहरि किं-पि ण रक्खिउ । णिय-जसुभित्ति तिलोएँ पयासिउ जिह सयम्भ-पिणे चिरु आहासिउ ।। 88. इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयम्भुएव-उव्वरिए। तिहुवण-सयम्भु-कइणा समाणियं दहसयं सग्गं । 84. एक्को सयम्भु-विउसो तहो पुत्तो णाम तिहुयण-सयम्मू। को वण्णिउं समत्यो पिउ-भर-णिव्वहण-एक्कमणो॥ 111. Sandhi, last Kadavaka, Ghatta & colophon. 85. तेतीस-सहस-वरिसे असणं गिण्हन्ति माणसे सुच्छं। तेत्तिय पक्खुस्सासं जसफित्ति-विहूसिय-सरीरे ॥ 86. इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयम्भुएव-उन्नरिए। तिहुवण-सयम्भु-रइए णेमिणिब्वाणं पण्डसुयतिण्णं ॥ 112. Sandhi, last Kadavaka, and the colophon of the work. 87. इह भारह-पुराणु सुपसिद्ध णेमिचरिय-हरिवंसाइउ ॥१ वीर-जिणेसें भवियहाँ अक्खिउ पच्छई गोयमसामिण रक्खिउ ॥२ सोहम्में पुणु जम्बूसामें विण्हुकुमारें दिग्गय-गामें ॥३ णन्दिमित्त-अवरज्जियणाहें गोवद्धणेण सु-भद्दह (?)वाहें ॥ ४ एम परम्पराई (इ) अणुलग्गउ आयरियह मुहाउ आवग्गउ ॥ ५ सुणि संखेव-सुत्तु अवहारिउ विउ सयमें महि-विस्थारिउ ॥६ पद्धडिया-छन्, सु-मणोहरु भवियण-जण-मण-सवण-सुहडकरु॥ ७ जस-परिसेसि-कविहिं जं सुण्णउ तं तिहुवण-सयम्भु-किउ पुण्णउ ॥ ८ तासु पुत्तें पिउ-भर णिवाहिउ पिय-जसु णिय-जसु भुवणे पसाहिउ ॥९ गय तिहुयण-सयम्भु सुर-ठाणहों जं उव्वरिउ किं-पि सुणियाणहों ॥१० तं जसकित्ति-मुणिहि उद्धरियउ णिऍवि सुत्तु हरिवंसच्छरियउ॥ ११ णिय-गुरु-सिरि-गुणकित्ति-पसाएं किउ परिपुण्णु मणहों अणुराएं ॥ १२ सरहसणेदं (?) सेठि-आएसें कुमर-णयरि आविउ स-विसेसें ॥१३ गोवगिरिहे समी विसालएं पणियारहें जिणवर-चेयालएँ ॥१४ सावय-जणही पुरउ वक्खाणिउ दिहु मिच्छत्तु मोहु अवमाणिउ ॥ १५ जं अ-मुणन्हें इह मई साहिउ तं सुयदेवि खमउ अवराहउ ।। १६ णन्दउ सासणु सम्मइ-णाहहों णन्दउ भवियण कय-उच्छाहहों ॥ १७ णन्दण (उ) णरवइ पय पालन्तहों णन्दउ दय-धम्मु वि अरहन्तहों ॥ १८ कालम्बि (णि) य णिच्च परिसक्कउ कासु वि धणु कणु दिन्तु ण थक्कउ ॥ १९ भद्दव-मासि विणासिय-भवकलि हुउ परिपुण्णु चउद्दसि णिम्मलि ।। २० ॥ घत्ता॥ इय चउविह-सङघ] विहुणिय-विग्य] णिण्णासिय-भव-जर-मरणु ॥ २१ जसकित्ति-पयासणु अखलिय-सासणु पयडउ सन्ति सयम्भु जिणु ।। २२ 88. इय रिट्ठणेमिचरिए षवलइयासिय-सयम्भुएव-उब्वरिए। तिहुवण-सयम्भु रइए समाणियं कण्ह-कित्ति-हरिवंसं ॥ गुरु-पव्व-वासभयं सुय-णाणाणुक्कतं जहा-जायं। सयमिक्क-दुद्दह-अहियं संघीओ परिसमत्ताओ ।। संधि ११२।। 89. इति हरिवंशपुराणं समाप्तं ।