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पत्थर-युग के दो बुत
१७१
 

पत्थर-युग के दो वुत १७१ उत्साह एव आनन्द प्रदान करते हैं। इन आवेगो को वश मे करना कठिन काम है । जो आदमी सभ्यता के निर्माण में भाग ले रहा हो उसमे यदि काममावेगो का विरोध उठ खडा हो तो वह उस व्यक्ति की क्रियाक्ति को दूसरी ओर मोड देगा-यह एक बहुत बड़ा खतरा है। काम-पावेग या यौन-जीवन का महत्त्व सबके सामने खोलकर नहीं रखा जा सकता । यह सामाजिक हितो के विरुद्ध है। इसी से इस मामले मे सयम का नहारा लेना पडता है। पर मयम को भी तो अन्तत सीमा है। काम-ग्रापंग और मयम की सीमाए जहा टकराती है वहा कुछ गलतिया होती है और वे कभी-कभी ऐसी भारी हो उठती हैं कि मनुष्य का नारा नीरन मिती अस्त-व्यस्त हो उठता है अथवा मनुप्य अात्मघात या जून भी कर दिया। देखिए, खून के नाम से आप डरिए मत। इन वन म स स्थितिम हूं कि मैं खून करने की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर विचार करन ना{ मैं कोई मूढ, क्रोधी और ईर्ष्यालु पति नही है । एक नहृदय और जापा, अपनी सव जिम्मेदारियो से परिचित पति हू । तो सुनिएयर मेरी बात शायद फिर आप न सुन सकें कुछ ऐसी अवस्थाए ग्राती है, जब महन्याला वाते बहुत हलकी दिखाई देती हैं। पर उनके खन ने हम वढी-पडी घाना के निर्णय पर पहुचते है । उस समय हम उनकी ग्रोर देखते भी नही । म यह नही सोचते कि ये मामूली वाते कार्य-कारण के नियम न वयो । और वे जिस रूप मे घटित हुई हैं उससे दूसरे रूप में नी घटित होती है, जिनमे जीवन-मरण का मकट या उपस्थित होता है। यौन जीवन का अर्थ है---अनुचित, अर्थात् जिसरी चर्चा नहीं बन चाहिए । परन्तु सब काम-वृत्तिया पनन का चिह है यह न नही माना। मभोग के पालम्बन ते अनियमित सम्वन्न हम ग्रादिम जाति ने कर प्रार की सभ्यता तक मे वैसा ही देखते है। आदिन कात्र ने बरपा, यौन-प्रवृत्तियो के नम्ह मे-नतुष्टि और अस्वीति रे बीच नन्द- -4 रहा है। प्रत योन तृप्ति की कुण्ठा ने मानव-जीवन दा पनि है। काम-अधा एक भीपण नख है। यह वह वाह वि निराग