पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/१९३

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पत्थर-युग के दो वुत १८५ भरपूर परिवार की शाति को भग करता है। परन्तु कानून मे इसकी सजा नहीं है, आज के कानून मे-जव व्यभि- चार एक साधारण दोप माना जाता है। खूव समझदार, सभ्य, शिप्ट पुरुप समझते हैं कि व्यभिचार से आदमी का ज्यादा कुछ नही विगडता। शरीर को धो-पोछकर साफ कर लिया जा सकता है। वे प्रेम को महत्त्व देते हैं, काम-वासना का वैज्ञानिक विश्लेपण करते है, परन्तु वे भूल जाते है कि कुछ सकटकालीन परिस्थितिया भी होती है, जव स्त्री की, पुरुप की और कभी-कभी सबकी कुर्वानिया करनी पड़ती हैं। तव सुन-मुनिया और व्यक्तिगत अधिकार नही देखे जाते। दुनिया मे युद्ध होते रहे हैं प्रोर तव लाखो मनुष्यो का रणागण मे जूझ मरना उनके जीवन का नॉनम ध्येय माना गया है । परन्तु जीवन का सर्वोत्तम ध्येय हॅमी-खुशी मे नीपित रहना है, मरना नही। पर यह आपत्कालीन धर्म है। हो सकता है कि स्त्री-पुरुपो को गृहस्थ जीवन मे नारीरिक वा पण हो, मानसिक वाधाए भी हो-इतनी वडी, इतनी गक्तिमान् कि निजी कारण जीवन का सारा आनन्द ही खत्म हो जाए। उन नमय स्त्री वा पुरुप दोनो को अपने उच्च चरित्र का, त्याग और निष्ठा रा महाग लेना चाहिए, वासना का नहीं। राय-जैसे लम्पट समाज मे वहुत है। ये तोग नन्य नमाज के गड है, सभ्यता की मर्यादा को दूपित करनेवाले । ग्राप उन्हे सह सकते हैं, बदन कर सकते है, क्योकि आपमे सत्ताहस का अभाव है, न्यभाव की दुव ना है आपमे। पर मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैंन उने बर्दाश्त नहीं किया। एक गन्दे कीडे को मार डाला। समाज को न अपवित्रता ने मकर दिया। अभी जेल से अदालत पाते हुए मैंने देखा-अदानत रे बाहर हग नर-नारी मेरे लिए दुग्रा माग रहे हैं। बान पर नारिमा बहन ने त है। वे सब मेरे समर्थन मे है। वे नमनती ह, मन बीर निवा-नर के खतरे को खत्म कर दिया, नानी पवित्रता ताबा पन दिया।