पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/३३

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पत्थर-युग के दो बुत
३३
 

पत्थर-युग के दो बुत ३३ और कपडो की व्यवस्था का ध्यान करने लगी। न जाने किस अज्ञात शक्ति से मुझे उनके आने का पता लग जाता था और मैं अपने बाल बनाने और साडियो का चुनाव करने लगती थी। और उस दिन उनके पाचवें वर्थ-डे पर, जव दत्त की गैरहाज़िरी के कारण मै मन-मलिन बैठी थी और मैंने दिन-भर के परिश्रम के बाद कपडे तक नहीं बदले थे, तब उन्होने मुझमे बाल बनाने और साडी बदलने का अनुरोध किया । यह अनुरोध कोरा अनुरोध ही न था, उसके साथ वही चमक उनकी आंखो मे थी, परन्तु उस चमक के साथ उनके होठो पर वह अनुगामी हास्य न था न दृष्टि मे वह याचना थी। अपितु, उसके स्थान पर एक तीव्र पिपासा थी, जिसे देखने पर मैं सयत न रह सकी। एक आसुरी तीव्र वासना का ज्वार जैसे मेरे खून मे उमड पाया। और मैंने उस क्षण ऐसे चाव से शृगार किया कि जैसा आज तक अपने जीवन मे नही किया था। दत्त से विवाह हुए अव मुझे पाच साल बीत चुके थे, उनके लिए न जाने मैंने कितने शृगार किए, और उन्होने काव्यमयी भापा मे उसे न जाने कितनी बार सराहा, परन्तु उन सव शृगारो मे और इसमे अन्तर या। उन सवमे सकोच या, लज्जा थी, यत्किचित् निरानन्द भी था, पर यह शृगार मेरी उद्दाम वासना का शृगार था। यह उद्दाम वासना उम एक ही क्षण मे न जाने कहा से मेरे मन मे या वसी थी। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा या कि जैसे मुझे बुखार चढा है , और जव नया शृगार करके मैं उनके विलकुल निकट, इतनी कि जितनी आज तक कभी नहीं गई थी, जा खटी हुई तो मैंने देखा-उनकी आखो की वह प्यास और चमक एक हिंव पशु की चमक मे बदल चुकी थी। उसने क्षण-भर मे मुझमे एक नशे का आलम पैदा कर दिया। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि जैसे यह अादमी अभी-अभी मुझे निगल जाएगा । और मैं भी न जाने क्सि भाव मे अभिन्न होकर मन ही मन कह उठी-लो-निगल जाओ, खा जायो, जो भी चाहो तो करो। उस समय उनका वक्ष मेरे वक्ष से सट रहा या गौर उनके दिल नी घटसन मुझे ऐमी लग रही थी जैसे हजारो तोपे दनदना रही हो । और न अनुभव