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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग के दो बुत यह मैंने उसी दिन जाना। उसके दूसरे ही दिन राय आए । अभी चिराग नही जले ये और दत्त के आने का अभी समय नहीं हुआ था। मैं सोफे पर पड़ी तडप रही थी। मेरे रक्त को प्रत्येक बूद मे राय ऊधम मचा रहे थे । राय और दत्त दोनो की मानस-मूर्तिया जैसे मुझे पाने को द्वन्द्व कर रही थी मैं दत्त को पीछे धकेल रही थी और राय मे समाती जा रही थी। कमरे मे अवेरा या, कोई नौकर-चाकर वहा न था। राय पाए, झपटते हुए जैसे चीता याता है निश्शब्द, और उन्होने झपटकर मुझे अपने अक-पाश मे जकड लिया और तडातड चुम्वन पर चुम्वन मेरे होठो पर पाखो पर, मस्तक पर, कपोलो पर और कन्धो पर जडने प्रारम्भ कर दिए। मुझे ऐसा लगा कि न जाने कव से-युग युग से, जन्म-जन्मातरो से मैं इस अाक्रमण की प्रतीक्षा कर रही थी। मैं एक ऐसे सुख मे खो गई कि जिसका अपने जीवन मे मैने आज तक अनुभव नहीं किया था। मेरे नेत्र बन्द हो गए और मैंने अपना आपा खो दिया।