पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/३९

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पत्थर-युग के दो बुत
३७
 

पत्थर-युग के दो बुत ३७ जैसे-जैसे मैं उसे वटोरता है, वह बिखरती है, वेकाबू होती जाती है । क्या उसे कोई दुख है ? बहुत बार मैंने पूछा है, पर सदैव उसने कहा- 'नहीं'। पर उसका यह 'नही' कितना ठण्डा है कि एक शब्द के सुनते ही मेरा हृदय ठण्डा हो जाता है । वहुधा तो वह जवाव देती ही नही । उसकी हर चेष्टा से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी उपस्थिति अव उसे उतनी प्रिय नही प्रतीत होती। कभी-कभी तो असह्य-सी भी लगती। क्या बात है यह ? इसकी जड भी कुछ अवश्य है । क्या उसका मन प्रद्युम्न मे लगा है ? पति से अधिक क्या पुत्र पर उसका प्रेम केन्द्रित हुअा है ? यह तो मेरो ई- का विषय नही होना चाहिए। पर नही, नहीं, ऐसी बात भी नहीं है। प्रद्युम्न को लेकर पहले वह जिस उमग से मेरे निकट पाती थी, अव कहा आती है । वह तो जैसे अब मुझे देखकर छुई-मुई-सी सिकुड़ जाती है, जैसे वह मेरी पत्नी नही, कोई गैर औरत है। देर से घर मे पाने पर पहले वह गुस्सा करती थी, कभी मौन और कभी कहती-सुनती भी थी। उनका गुम्सा मुझे अच्छा लगता था, उसमे उसके अटपटे प्रेम का पुट था। पर अव तो वह कुछ भी नही कहती , जैसे मेरे घर मे आने-जाने से उनका कोई वास्ता ही नही रहा । उस दिन मैंने उससे पूछा कि क्या वह बीमार तो इसका भी उसने वही ठण्डा जवाब दे दिया, 'नहीं।' देख रहा है कि मुझमे उसकी दिलचस्पी कम हो रही है । राय के नाम से वह चौकती है, स्थिर नही रह सकती। प्रसग हिटते ही चल देती है। क्या वात है यह ? राय से क्या उसे चिट है । वेचारा नला आदमी है खुशमिजाज है, मेरा पुराना दोस्त है। वह सदैव मुने और उने नी प्रसन्न करने की चेप्टा करता रहता है। उसने क्या रेखा को नारान र दिया है ? ऐसा यादमी तो वह है नहीं। इधर वह पाता भी कम ह, पार जव अाता है, प्रद्युम्न के साथ खेलता रहता है। स्व घटती र प्रद्यन्न ने उसकी । परन्तु इसमे तो रेखा के नाराज़ होने की कोई वान ही नही है । वई दिन से मैं मन ही मन घट रहा पा । मने ग्राज ठान लिया पा, ग्राज सुलकर बात करूगा । अाखिर में उनका पति द्, उनने नुख-दुतनी