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पत्थर-युग के दो बुत
 

क्यों न घबराती भला? मैं तो एक साधारण गृहस्थ की कन्या हूँ। मेरे पिता के घर पर तो केवल एक ही नौकर घर का सब काम-धन्धा करता था। पिताजी उसके साथ परिवार के एक सदस्य की भाँति ही व्यवहार करते थे। वह हमारा पुराना नौकर था। मुझे उसने बचपन में गोद में खिलाया था। वह मुझे 'बिटिया रानी' कहता था। विवाह होने के बाद तक भी वह इसी तरह कहता रहा। मैं उसे दद्दा कहती थी। माँ उसे बहुत मानती थी। और वह हमारे सारे ही दुःख-सुख में सम्मिलित था। पिता की मैं इकलौती बेटी हूँ। तीन भाई हुए, और जाते रहे। माँ उनकी याद कर-करके रोती रही। बहुत बार उन्होंने मुझे छाती से लगाकर मेरे भाइयों की स्मृति में आँसू बहाए। कदाचित् इसी से माता और पिता का समूचा प्यार मुझ अकेली पर उमड़ आया था। इतना प्यार भी किसी को मिल सकता है, यह मैं तब नहीं, पर अब सोचती हूँ––उनसे दूर होकर, उनकी स्नेहमयी गोद से छीनी जाकर।

आरम्भ में पिताजी ने मुझे स्वयं ही पढ़ाया। उस पढ़ाने में कितना दुलार था। ये बचपन की बातें हैं पर उन्हें भूली नहीं हूँ। भूल सकती भी नहीं हूँ। इसके बाद स्कूल-कॉलेज, कॉलेज की सहेलियाँ, विवाह के पूर्व का वह निर्द्वंद्व जीवन, जब शैशव विदा हो रहा था और यौवन आँख-मिचौनी के खेल खेल रहा था, गुदगुदाता था, खिलखिलाता था, छूता था, पर दीखता न था। कैसा मनमोहक था वह खेल! कितना मन को भाता था! कितना हँसती थी मैं, और कितनी बातें करती थी––आज सोचती हूँ तो सोचती ही रह जाती हूँ। बात-बात पर मचलती, माँ की गोद में गिर जाती, जैसे अभी भी दूधपीती बच्ची समझती थी। ऐसा दुलार करती थी। मुझे तो याद नहीं, मैंने कभी माँ का कोई अपराध किया हो, या माँ ने मेरी कोई भूल-चूक अपराध मानी हो। और पिताजी, बेचारे ऐसे निरीह निष्पाप––ज्यों-ज्यों मैं बड़ी होती गई, मेरे अनुगत होते गए। उनपर मैं निर्द्वंद्व शासन चलाती, जो चाहती करा लेती। मेरी किसी इच्छा में वे