पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२०४

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१२४ पदुमावति । ७ । बनिजारा-खंड। [७८ ७८-७४ रिन्ह बसतु बिकाही" यह ७६ वै दोहे में कह पाये हैं, तहाँ) मदार के कौट (सदृश ) क को कौन (को) पूछता है। (मदार का कौट हरित शुक-हौ के सदृश होता है। मदार का कौट कहने का यह तात्पर्य है, कि जहाँ मदार-ही को बौरहे महादेव को छोड, और कोई नहीं पूँछता, तहाँ उस के कोट को कौन पूँछे ) । (वह शुक) अच्छी तरह मन को मारे, अर्थात् चुप चाप (अपने ) चलने को देखता है, (कि देखें कहाँ पर चलना होता है) ॥ (वह भिखारौ) ब्राह्मण श्रा कर एक से पूछा (अपने मन में शोच कर, कि) देखें यह गुणवान (गुनवंत) है, अथवा (कि) खाली ( छा) निर्गुण (निरगुन = गुण से रहित ) है ॥ (पूँछा, कि) हे पहाडौ (क), जो तेरे पास गुण हो, ( उसे ) कहो, हृदय में गुण को न छिपाये ॥ (क्यों कि ) हम तुम दोनों जाति में ब्राह्मण हैं। (प्रसिद्ध है, कि पक्षियों में शुक ब्राह्मण है, इसी लिये उस के जूठे फल को लोग खा लेते हैं )। सब किसी में (सब कोऊ ) ( यह रोति है, कि) जाति-हौ को जाति पूँछती है, (शास्त्र में भी लिखा है कि "स्ववर्ग परमा प्रौतिः") ॥ (मो यदि) पण्डित हो, तो बेद को सुनावो, (क्योंकि) विना पूँछे पता (भेद ) नहीं पाया जाता, (कि कौन क्या जानता है) । (भिखारौ ब्राह्मण कहता है, कि मैं भी) ब्राह्मण और पण्डित है, ( मेरे सामने ) अपना गुण कहो। (क्याँकि) पढे हुए (पण्डित ) के आगे जो पढता है, तिसे (तेहि) दूना लाभ होता है, ( एक अपना पढा हुआ पाठ शुद्ध हो जाता है, दूसरे वह पण्डित वैसा ही उपयोगी दूसरा नया पाठ अपनी पाण्डित्य दिखलाने के लिये बता देता है। याँ दूना लाभ होता है) ॥ ७८ ॥ चउघाई। तब गुन मोहिँ अहा हो देवा । जब पिंजर हुति छूट परेवा ॥ अब गुन कउनु जो बँद जजमाना। घालि मॅजूसा बैंचइ आना ॥ पंडित होइ मो हाट न चढा। चहउँ बिकान भूलि गा पढा ॥ दुइ मारग देखउँ प्रहि हाटा। दइउ चलावइ दहु केहि बाटा ॥ रोअत रकत भण्उ मुख राता । तन भा पिअर कहउँ का बाता ॥ राते सावं कंठ दुइ गोवा। तहँ दुइ फाँद डरउँ सुठि जौवा ॥ अब हउँ कंठ फाँद गिउ चीन्हा। दहुँ गिउ फाँद चाह का कोन्हा ॥