पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२०९

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CS २] सुधाकर-चन्द्रिका। १२८ पइ यह पेट भएउ बिमुबासी। जेइ सब ना तपा सनिवासी ॥ डासन सेज जहाँ जेहि नाहौँ। भुइँ परि रहइ लाइ गिउ बाहौं । आँध रहइ जो देख न नयना। गँग रहइ मुख आउ न बयना ॥ बहिर रहइ जो स्रवन न सुना। पइ यह पेट न रह निरगुना ॥ का कइ फेरा निति बहु दोखो। बारहि बार फिरइ न सँतोखौ ॥ दोहा। रजाप्रमु=राजाज्ञा । अलग पड कर। लाइ =श्रा अन्धी। सो मोहि लेइ मँगावई लावइ भूख पिपास। जउँ न होत अस बइरी केहु काहू कइ आस ॥ ८२॥ जन-मनुव्य नोकर-चाकर। दउराए= दौडाये गये। बिपर = विप्र = ब्राह्मण । असौमि = आशिषा कर = आशीर्वाद कर। बिनति = विनय । अउधारा = अवधारणा किया = प्रारम्भ किया। निरारा = निरालय = घर से बाहर = दूर । विसुअामोविश्वाशी विश्व (संसार) को खाने-वाला। नाप = नाये नवाय दिया = झंका दिया। तपा = तपखौ। सनिबासी = सन्यासी (३० वां दोहा देखो)। डासन =दर्भासन = बिछौना। सेज = पाय्या। भुई = भूमि । परि लगा कर। गिउ = ग्रीवा = गला। बाहौं = बाह = बाहु। आँध = अन्ध गग = गंगा = मूक। बयना = वचन । बहिर = बधिर =बहिरा । स्रवन = श्रवण कर्ण = कान । निरगुना = निर्गुण = बे गुण का। दोखी = दोषी = दोष से भरा। बारहि बार वारंवार = फिर फिर, वा दार द्वार= दरवाजे दरवाजे। सँतोखौ = सन्तोषी सन्तोष से भरा। लेदु = ले कर । मंगाई मंगवाता है। लावद् = लगाता है। भूख = बुभुक्षा क्षुधा। पित्रास = पिपासा = प्यास । बदरौ = वैरौ = शत्रु । श्राम आशा = उम्मेद ॥ राजा की आज्ञा हुई, नोकर-चाकर (जन) दौडाये गये, (वे लोग) शौघ्र (बेगि ) ब्राह्मण और शुक को ले आये ॥ ब्राह्मण ने आशीर्वाद कर विनय को प्रारम्भ किया, कि (हे राजन ), शुक-प्राण (जीव) को अलग न करता ॥ परन्तु यह पेट संसार को खाने-वाला हुआ है। जिस ने सब तपस्वी और सन्यासियों को (अपनी ओर) झुकाया है ॥ जहाँ पर जिस को बिछौना और पाय्या नहीं होती। (तहाँ पर वह ) गले में बाह लगा कर, अर्थात् बाह को गल-तकिया लगा कर, भूमि में पड रहता है, अर्थात् 17 -