पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२६४

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१७४ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०५ चउपाई। नयन बाँक सरि पूज न कोऊ। मान समुंद अस उलथहिँ दोऊ ॥ राते कवल करहिँ अलि भवाँ। घूमहिँ माति चहहिँ अपसवाँ ॥ उठहिं तुरंग लेहि नहिँ बागा। जानउँ उलथि गगन कहँ लागा ॥ पवन झकोरहिं देड हिलारा। सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥ जग डोलइ डोलत नयनाँहा। उलटि अडार चाह पल माँहा ॥ जबहिँ फिराहिँ गगन गहि बोरा। अस वेइ भउँह भवर के जोरा॥ समुंद हिलार करहिँ जनु झूले। खंजन लरहि मिरिग बन भूले ॥ दोहा । सु-भर समुंद अस नयन दुइ आवहि तौर फिरावही मानिक भरे तरंग। काल भवर तेहि संग ॥ १०५ ॥ बागा बाँक = वक्र = कठिन = कुटिल वा टेढे। मान = अभिमान । समुंद = समुद्र। वा मान-समुंद = मान-समुद्र = संमानयोग्य-समुद्र = चौर-सागर । उलथहिँ = उलटते हैं। राते =रक = लाल । अलि = भ्रमर = भौरा। भवाँ = भौरी भ्रमण । माति = मत्त हो कर। अपसवाँ अपसरण = भागना। तुरंग = तुरङ्ग तुरग = घोडा। वागुर वा वल्गा = लगाम में लगी डोर, जिस से चाहे जिधर घोडा फिर सकता है सरग = स्वर्ग। भुइँ = भूमि । बहोरा श्रवहरति = अवहरण करते हैं = फिर ले आते । अडार = अडलक जो डालो में न समाय = ढेर का ढेर। गहि = ग्टहीत्वा = ग्रहण = पकड के । बोरा = बोरते हैं = डुबाते हैं। भवर = भ्रमर = श्रावत। जोरा जोडा = युग्म, वा जोरा = जोडे हुए = मिलाये हुए। हिलोर = हिल-लोल = हिलने से चञ्चल । खंजन खञ्जन पचौ, शरदृत में जिम के प्रथम दर्शन से मंहिताकारों ने शुभाशुभ फल कहा है। मिरिग = मृग = हरिण | सु-भर = शुभ्र = उज्ज्वल । मानिक माणिक्य । काल काला, वा सब का प्राण लेने-वाला । भवर = भ्रमर, वा भैौर श्रावर्त्त, जो नद, नदी वा समुद्रों में पानी चक्कर खाता है ॥ - कर के 1 1