पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४३२

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३२६ पदुमावति । १५ । सात-समुदर-खंड । [१५४ - १५५ = जीवन्मुक्त हो अमरत्व सुख को पाता है। जो सत्य को जानता है, अर्थात् सत्य-सङ्कल्प को महिमा से परिचित है, (वह निःसंशय हो कर, श्राप) अपने को जारता है। (और जो) निःसत्य हृदय है, अर्थात् जिस का हृदय सत्य से विचल गया है, (वह प्राणी) नहीं सत्य कर सकता है, अर्थात् जिस का मन रात दिन सङ्कल्प-विकल्प में पड़ा रहता है, वह क्या सत्य-सङ्कल्प करेगा वा उस को सैकडों (पुरुष) पार नहीं कर सकते ॥ ( कवि कहता है, कि लोग दधि-समुद्र के भयङ्कर-ज्वाला के भय से ठहरे नहीं, दूध के समुद्र को नाँघ कर) फिर दधि-समुद्र के पार हुए, (क्योंकि ) प्रेम का कहाँ सँभार हो, (अर्थात् प्रेम का ऐसा बड़ा भारी बोझा है, कि इसे ले कर प्राणी एक स्थान में नहीं ठहर सकता ; यही पडौ रहती है, कि कैसे शीघ्र मंजिल पूरी कर, दूस बोझे को उतारे ) चाहे शिर पर पानी पडे, चाहे अङ्गार पडे ॥ १५ ४ ॥ चउपाई। आए उदधि समुदर अपारा। धरती सरग जरइ तेहि झारा ॥ आगि जो उपनी उह-इ समुंदा । लंका जरी उह-इ प्रक बुंदा ॥ बिरह जो उपना उह-ई काढा। खन न बुझाइ जगत तस बाढा ॥ जिन्ह सो बिरह तेहि आगि न डौठौ। सउँह जरइ फिरि देइ न पौठौ ॥ जग मँह कठिन खरग कइ धारा। तेहि त अधिक बिरह कइ झारा ॥ अगम पंथ जउ अइस न होई। साधि किए पावइ सब कोई॥ तेहि रे समुद मँह राजा परा। चहइ जरा पइ रोव न जरा॥ दोहा। तलफइ तेल कराह जिमि इमि तलफइ सब नौर। यह जो मलय गिरि पेम का बेधा समुद समोर ॥ १५५ ॥ उदधि= जलधि = जल जिस में हो जल का समुद्र। समुदर = समुद्र। अपारा- अपार = जिम का पार न हो। धरती= धरित्री = पृथ्वी। सरग = खर्ग= आकाश = जर (ज्वलति) = जरता है। झारा = झाला= तेज। श्रागि= अग्नि आग । उपनौ = उत्पन्न हुई । उह-दू = उह-ई = वहौ = उमौ । समुंदा श्रासमान। समुद्र। लंका