पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४९२

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३८६ पदुमावति । १८ । वियोग-खंड। [१७५ 1 दोहा। जोबन चाँद उत्रा जस बिरह भण्उ सँग राहु घटतहि घटत छौन भइ कहे न पारउँ काहु ॥ १७५ ॥ दहति जलाता है। धादू = धात्री=धाई। जोबन = यौवन = जवानी। अउ = अपि च = और। जीऊ=जीव। होई = हो। परदू = पडा। अगिनि = अग्नि । मँह = मध्य । चौऊ = त । करवत = करपत्र = श्रारा। सहउँ = सहे = सहती हूँ। होत = होती है (भवति) । दुद् = द्वौ = दो । प्राधा =खण्ड =टुकडा । दाधा- दाह । बिरहा = विरह = जुदाई । सुभर = शुभ्र = अच्छा = माफ = भारी। असभारा सँभारने लायक नहीं = सँभार = सम्भार। भवर = भ्रमर = आवर्त्त =भीर । मेलि = मेलयित्वा = मेल कर = डाल कर । जिउ = जीव । लहरहिँ = लहरों से = तरङ्गों से मारा = मारयति = मारता है। नाग = सर्प = साँप । हादू = होदू = भूत्वा = हो कर । सिर = शिरः । चढि चढ कर = उच्चैरारुह्य । डसा = दशति = डसता है = काटता है। चाँद = चन्द्र। बमा = वमति = वास किया है। पंखौ = पक्षौ। बिश्राधू = व्याध = बहेलिया। केहर = केशरी = सिंह। कुरंगिनि = कुरङ्गौ = हरिणौ । खाधू = खाद्य = भक्षण = खाने को वस्तु । कनक = सुवर्ण = सोना। पानि पानीय = पानी। कत = कुतः = कस्मात् = काहे को। अउटन = श्रावर्तन = औटना । जलहि = जल को = पानी को । मसि = मषौ = स्याही। छूअर का प्रथम पुरुष में भूत-काल का एक-वचन । फूलहिँ = फूलदू का बहु- वचन (फुल्ल विकशने से बना है)। भवर = भ्रमर । फरहि = फरदू का बहु-वचन (फलति से बना)। भा = बभूव = भया = हुआ, यहाँ हो कर । सूत्रा = शुक = सुग्गा । उद्त हुत्रा = ऊगा। जम = यथा = जैसे। सँग = मङ्ग दैत्य जो चन्द्र को निगल जाता है। घटतहि घटत = घटते घटते कम होते होते (घट चेष्टायां घश्यते से )। छौन = क्षीण = दुर्वल । कहे = कहने से = कथनेन । पारउँ= पार हो सकती हूँ। काहु कापि वा किसी से ॥ (पद्मावती कहती है, कि) हे धाई, (विरह ) जवानी और जीव (दोनों ) को जला रहा है (जानौँ ) भाग में घी पडा हो ॥ (देह जानौं) आरे से दो टुकडे हुई जाती है (इस दुःख को भौ )महती हूँ; जवानी को जलन नहौं सही जाती॥ पति को जुदाई भारी अपार समुद्र है वह जीव को भीर में डाल कर लहरों से मार रहा है छत्रा = उगा= = साथ। राऊ एक 11