पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५५२

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४४६ पदुमावति । २१ । राजा-रतनसेन-सतौ-खंड | [२०७ जगत् = संसार झरे झर (झरति) का भूत-काल में प्रथम-पुरुष का बहु-वचन । सूखौ = सूखद (शुष्यति) का भूत-काल में स्त्रीलिङ्ग का प्रथम-पुरुष में एक-वचन । फुलवारी पुष्यवाटिका। परीः = परदू (पतति) का स्त्रीलिङ्ग मैं भूत-काल का एक-वचन । उकठी = उकठ गई सूख गई । छारी = भस्म हो गई = क्षार हो गई = राख हो गई। कहूँ = किस ने। बसत = बसते। उजारा = उजार (उज्ज्चारयति) का भूत-काल में एक-वचन । गा = गया (अगात् )। चाँद = चन्द्र । अथवा = अस्त हो गया (अस्तमितः) । ले = ले कर (श्रालाय)। तारा = तारा-गण । अब = इदानीम् । बिनु विना । जग= भा= भया (बभूव)। अंध-कूपा अन्ध-कूप । छाँह छाया। जरउँ जर (ज्वलति) का उत्तम-पुरुष में एक-वचन। हउँ = अहम् = मैं। धूप = घाम । बिरह = विरह = वियोग। दवाँ = दवानल = दवाग्नि। जरत =जरते (ज्वलन्) । सिरावा सिरावे = मिरावडू (शौतयति) का सम्भावना में प्रथम-पुरुष का एक-वचन । पौतम प्रियतम । सउँ = साँ = से । करद = करे ( कुर्यात् ) । मेरावा = मिलाप = मेलापक ॥ हिअ = हृदये हृदय में। देख = देखा = देखद का भूत-काल में प्रथम-पुरुष का एक-वचन । खेवरा खौरा हुश्रा = लगाया हुआ (खेत सेवने से)। मिलि कडू = मिल कर। लिखा = लिखा हुआ। बिछोउ = विछोह = विशोक = विशेष वियोग । हाथ = हस्त । मौजि = मौंज कर (श्रामी)। सिर = शिर। धुनि = धुन कर = कपा कर (धु कम्पने से )। रोअद् = रोता है (रोदिति)। निचिंत = निश्चिन्त = विना चिन्ता के । श्रम ऐसा = एतादृश । सोउ = सोता है (ोते) ॥ जब पद्मावती वसन्त कर, अर्थात् वसन्त ऋतु की शोभा फैला कर, चली गई ; तब राजा (रत्न-सेन) को वसन्त-ऋतु को याद हुई, अर्थात् वसन्त-ऋतु को शोभा देखते-हौ बेहोश हो गया था ; होश होते-हो उस वसन्त को सुधि हुई । जो जागा (तो देखता है कि ) न वसन्त है न वाटिका है वा न वे बालिकाएँ हैं ; न वह खेल है, न वे खेलन-हारी (नवयौवना युक्ती) ही हैं । और न उन के शोभित रूप हो

(वह पद्मावती) लोप हो गई, फिर दृष्टि में न आई । फूल झड पडे, फुलवारी

सूख गई; (राजा की) दृष्टि सब भस्म हो कर राख हुई, और उकठो फुलवारी पर पडौ। (रोने लगा कि हाय) किस ने इस बसते वसन्त को उजाड दिया; (हा वह ) चन्द्र ( पद्मावती का रूप) चला गया; (सब) ताराओं (सखित्रओं) को ले कर अस्त हो गया। अब उस के विना संसार अन्ध-कूप हो गया ; (हा) वह (पद्मावती-रूप. चन्द्र) शोक, वा