पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२० - २२१] सुधाकर-चन्द्रिका। ४७८ मरजित्रा = मर कर जौनेवाला = गोताखोर = समुद्र में गोता मारने-वाला। समुंद = समुद्र। धस = धंसता है (ध्वंसते)। हाथ = हस्त । श्राउ = श्रायाति = आता है, वा पाती है। तब = तदा। मौपु = सौपौ = शक्ति । ढूंढि = ढूँढ (ढुण्डि अन्वेषणे से)। लेहु = लेो। सरग-दुपारौ स्वर्ग-द्वारी = वर्ग का दरवाजा। चढु = चढ = चढो। सिंघल-दौपु= सिंहल-दीप ॥ (सिंहल) गढ वैसा ही बाँका है जैसी कि तुमारी शरीर, परीक्षा कर देखो तो यह शरीर उस (सिंहलगढ) को छाया है। हठ कर युद्ध करने से वह (दीप = द्वीप वा= ज्योति) नहीं मिलता, जिन्हों ने (उम को) पाया वे लोग अपने को चौन्हने हो से ( पाया)। उस गढ में नौ डेवढिाँ हैं, और तहाँ (रात दिन) पाँच कोतवाल घूमा करते हैं । दसवें दरवाजे पर एक छिपी हुई नाकी है, (उस पर जाने में ) अगम चढाव और बहुत ही कठिन राह है। कोई भेदी उस घाटी पर जाता है यदि भेद पा कर चौंटी हो कर चढे तो। गढ के नीचे एक अगाध कुण्ड है, उस में जाने के लिये तुझ से राह कहता हूँ। चोर पैठ कर जैसे सैंध को सुधारता है, जुआडी जैसे में सब तरह से जीव लगाता है ॥ जैसे गोताखोर समुद्र में धंसता है तब (उस के) हाथ सौपी श्राती है। उसौ तरह उस वर्ग-द्वार को ढूँढ लेश्रो और सिंहल-द्वीप पर चढो ॥ ४ १ – ४ २ दोहे को टौका देखो। शरीरपक्ष में दसएँ द्वार से ब्रह्मरन्ध्र लेना जहाँ अथाह ब्रह्माण्डकुण्ड में सच्चिदानन्द-परब्रह्मरूपा दीपशिखोपमा पद्मावती बैठी है ॥ २२ ॥ चउपाइ। दसउँ दुधार तारु का लेखा। उलटि दिसिटि जो लाउ सो देखा ॥ जाइ सो जाइ साँस मन बंदी। जस धंसि लीन्ह कान्ह कालंदी ॥ तूं मन नाथ मारु कइ साँसा। जउँ पइ मरहु आपु करु नासा ॥ परगट लोकचार कहु बाता। गुपुत लाउ मन जा सउँ राता ॥ हउँ हउँ कहत मटि सब खोई। जउँ तूं नाहिँ आहि सब सोई ॥ जिअतहिँ जो रे मरइ एक बारा। पुनि को मौचु को मारइ पारा ॥ आपुहि गुरु सो आपुहि चेला। आपुहि सब अउ आपु अकेला ॥