पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६०५

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२२४- २२५] सुधाकर-चन्द्रिका। ४८७ श्राउ - श्रावे (भायात् )। जहि जिस । भिखिा = भिक्षा । कदू = की। श्राम श्राशा = उम्मीद । निराम = निराश । डिढ = दृढ = मजबूत । कित = कुतः = क्यों । गठन =जाय (गच्छेत् ) । केहु = किम । पास = पार्श्व = नगीच = निकट ॥ (राजा रत्न-सेन ने कहा कि) यदि अाज्ञा हुई है तो जिम भीख लेने के लिये मैं श्राया हूँ उसे यदि राजा (गन्धर्व-सेन) दे तो मैं क्यों न लेऊँ। पद्मावती जो राजा की लडकी है, उसी के लिये मैं योगी भिखारी हुश्रा है। (उसी को) खप्पर लिए द्वार पर पड़ा माँग रहा हूँ, (यदि राजा उस ) भुक्ति को दे तो मैं ले कर अपनी रास्ता न। ( उस ) भुक्ति की प्राप्ति हो (मेरे लिये सब) पूजा है, मैं कहाँ जाऊँ, ( उस भुक्ति-प्राप्ति के लिये मुझे) दूसरा ऐसा द्वार नहीं है। अब तो मेरी शरीर यहाँ और जीव (जहाँ पद्मावती है) उस स्थान पर है, (मर कर ) भस्म हो जाऊँ पर उस के नाम को न छोड़ (यही मेरी प्रतिज्ञा है)। यदि (तुम से राजा गन्धर्व-सेन) पूछे तो धर्म के लिये कहना कि जैसे प्राण के विना शरीर छौ (व्यर्थ) है (उसी तरह उस योगी की दशा है)। तुम राजा की ओर से दूत हो, मैं ने दूसी भीख के लिये निहोरा किया है इस बात के तुम लोग गवाह हो ॥ जिम योगी को भिक्षा की आशा होती है वही (भिक्षा के लिये) दरवाजे पर श्राता है, यदि निराश हो कर आसन पर दृढ रहे तो (फिर) किसी के पास कयाँ जाय ॥ २२४ ॥ चउपाई। a सुनि बसौठ मन उपनौ रोसा । जउ पौसत घुन जाइहि पौसा ॥ जोगी अइस कहइ नहिँ कोई। सो कहु बात जोग तोहि होई ॥ वह बड राज इंदर कर पाटा। धरती पर सरग को चाटा ॥ जउँ यह बात होइ तहँ चलो। छूटिहिँ अबहिँ हसति सिंघली ॥ अउ छूटिहिँ तहँ बजर क गोटा। बिसरइ भुगुति होहु तुम्ह रोटा ॥ जहँ लगि दिसिटि न जाइ पसारी। तहाँ पसारसि हाथ भिखारी अागू देखि पाउँ धरु नाथा। तहाँ न हेरु टूट जहँ माथा ॥