पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/१३५

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क्षमा.
 

है बल्कि आगैके लिये और अपराधों से लोगों को बचाने का है"

"इसी वास्तै मैं चाहता हूं कि मेरा चाहै जितना नुक्सान हो जाय परंतु हरकिशोर के पल्ले फूटी कौड़ी न पड़ने पावे" लाला मदनमोहन दांत पीसकर कहनें लगे.

"अच्छा! लाला साहबनें कहा इस रीति सै क्या मास्टर साहब के कहने का मतलब निकल आवैगा?" लाला ब्रजकिशोर पूछने लगे. "आप जान्ते हैं कि दंड दो तरह का है एक तो उचित रीति सै अपराधी को दंड दिवाकर औरोंके मनमैं अपराधकी अरुचि अथवा भय पैदा करना, दूसरे अपराधी से अपना वैर लेना और अपने जी का गुस्सा निकालना. जिस्ने झूंटी निंदा करके मेरी इज्जत ली उस्को उचित रीति सै दंड कराने में मैं अपने देशकी सेवा करता हूं परंतु मैं यह मार्ग छोड़कर केवल उस्की बरबादी का विचार करूं अथवा उस्का बैर उसके निर्दोष संबंधियों से लिया चाहूं, आधीरात के समय चुपके सैं उस्के घर मैं आग लगा दूं और लोगों को दिखाने के लिये हाथ मैं पानी लेकर आग बुझाने जाऊं तो मेरी बराबर नीच कौन होगा? विदुरजी ने कहा है "सिद्ध होत बिनहू जतन मिथ्या मिश्रित काज। अकर्तब्यते स्वप्नहू मन न धरो महाराज॥"[१] ऐसी काररवाई करनेंवाला अपनेx मन मैं प्रसन्न होता है कि मैंनें अपनें बैरीको दुखी किया परंतु वह आप महापापी बन्ता है और देश का पूरा नुक्सान करता है मनु महाराज नें कहा है "दुखित होय


  1. मिथ्योपेतानि कर्माणि सिद्ध्ययुर्यानि भारत॥
    अनुपायप्रयुक्तानि मास्म तेषु, मनः कथाः॥