भाखै न तौ मर्म बिभेदक बैन॥ द्रोह भाव राखै न चित करै न परहि अचैन॥[१]"
जो अपराध केवल मन को सतानेंवाले हों और प्रगट मैं साबित न हो सकैं तो उन्का बदला दूसरे सै कैसे लिया जाय?" लाला मदनमोहन नें पूछा.
"प्रथम तो ऐसा अपराध होही नहीं सक्ता और थोड़ा बहुत हो भी तो वह ख़याल करने लायक़ नहीं है क्योंकि संदेह का लाभ सदा अपराधी को मिल्ता है इस्के सिवाय जब कोई अपराधी सच्चे मन सै अपनें अपराध का पछताव कर ले तो वह भी क्षमा करने योग्य हो जाता है और उस्सै भी दंड देने के बराबर ही नतीजा निकल आता है"
"पर एक अपराधी पर इतनी दया करनी क्या ज़रूर है?" लाला मदनमोहन ने ताज्जुब सै पूछा.
"जब हम लोग सर्व शक्तिमान परमेश्वर के अत्यंत अपराधी होकर उस्सै क्षमा करानें की आशा रखते हैं तो क्या हम को अपने निजके कामों के लिये, अपने अधिकार के कामों के लिये, आगे की राह दुरुस्त हुए पीछें, अपराधी के मन मैं शिक्षा की बराबर पछतावा हुए पीछै, क्षमा करना अनुचित है? यदि मनुष्यके मन मैं क्षमा ओर दया का लेश भी न हो तो उस्मैं और एक हिंसक जंतु मैं क्या अन्तर है? पोप कहता है "भूल करना मनुष्य का स्वभाव है परंतु उस्को क्षमा करना ईश्वर का गुण है" x[२]