करके असल पूंजी के हाथ लगाए बिना अमीरी ठाठ सै उमरभर चैन कर सक्ते थे. विदुरजी नें कहा है "फल अपक्व जो बृक्ष ते तोर लेत नर कोय॥ फल को रस पावै नहीं नास बीजको होय॥ नासबीज को होय यहै निज चित्त विचारै॥ पके, पके फललेइ समय परिपाक निहारै॥ पके, पके फललेइ स्वाद रस लहै बुद्धिबल॥ फलते पावै बीज, बीजते होइ बहुरिफल॥ †[१]" यह उपदेश सब नीतिका सार है परन्तु जहां मालिक को अनुभव न हो, निकटवर्ती स्वार्थपर हों वहां यह बात कैसे हो सक्ती है? "जैसे माली बाग को राखत हितचित चाहि॥ तैसै जौ कोला करत कहा दरद है ताहि?॥"
लाला मदनमोहन अबतक क़र्ज़दारी की दुर्दशा का वृत्तान्त नहीं जान्ते.
जिस्समय क़र्ज़दार वादे पर रुपया नहीं दे सक्ता उसी समय सै लेनदार को अपनें क़र्ज़ के अनुसार क़र्ज़दार की जायदाद और स्वतन्त्रता पर अधिकार हो जाता है. वह क़र्ज़दार को कठोर से कठोर वाक्य "बेईमान" कह सक्ता है, रस्ता चल्ते मैं उस्का हाथ पकड़ सक्ता है. यह कैसी लज्जा की बात है कि एक मनुष्य को देखते ही डर के मारे छाती धड़कनें लगे और शर्म के मारे आंखें नीची हो जायँ, सब लोग लाला मदनमोहन की तरह फ़िजूल ख़र्ची और झूंठी ठसक दिखानें मैं बरबाद नहीं होते सौ
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† बनस्पतेरपक्वानि फलानिप्रचिनोति यः॥
सनाप्रीति रसं तेभ्यो बीजं चास्व विनश्यति
यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणतं बलं॥
फलाद्रसं सलभते बीज च्चै व फलं पुनः॥