पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/१६४

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परीक्षागुरु.
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की तरह आधी प्रीति और आधी लज्जाकी झलक दिखाई देती थी और सञ्ची प्रीतिके कारण संसार की कोई वस्तु सुन्दरतामैं उस्सै अधिक नहीं मालूम होती थी. एककी गुप्त दृष्टि सदा दूसरे की ताक झाक मैं लगी रहती थी क्या चित्रपट देखने मैं, क्या रमणीक स्थानों की सैर करनें मैं, क्या हँसी दिल्‌लगी की बातों मैं कोई मौक़ा नोक झोक सै ख़ाली नहीं जाताथा और संसार के सब सुख अपनें प्राण जीवन बिना उन्को फीके लगते थे परन्तु अब वह बातें कहां हैं? उस्की स्त्री अबतक सब बातों मैं वैसीही दृढ है बल्कि अज्ञान अवस्था की अपेक्षा अब अधिक प्रीति रखती है परन्तु मदनमोहन का चित्त वह न रहा वह उस बिचारी सै कोसों भागता है उस्को आफ़त समझता है क्या इन् बातों से अनसमझ तरुणों की प्रीति केवल आंखों मैं नहीं मालूम होती? क्या यह उस्की बेक़दरी और झूंटी हिर्सका सबसे अधिक प्रमाण नहीं है? क्या यह जानें पीछे कोइ बुद्धिमान ऐसे अनसमझ आदमियों की प्रतिज्ञाओंका विश्वास कर सक्ता है? क्या ऐसी पवित्र प्रीतिके जोड़े मैं अंतर डालनेंवालों को बाल्मीकि ऋषि का शाप +[१] भस्म न करेगा? क्या एक हक़दार की सच्ची प्रीति के ऐसे चोरों को परमेश्वर के यहां सै कठिन दंड न होगा?

मदनमोहन की पतिव्रता स्त्री अपने पतिपर क्रोध करना तो सीखीही नहीं है मदनमोहन उस्की दृष्टि मैं एक देवता है वह अपनें ऊपर के सब दुःखों को मदनमोहन की सूरत देखते ही भूल जाती है और मदनमोहन के बड़े से बड़े अपराधों को सदा


  1. + मानिषाद प्रतिष्ठां त्वपगमः साश्वतीः सनाः॥
    यत्‌क्रौंचमिथुना देकमवधीः काममोहितम्॥