पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/१९७

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दिवाला.
 

संध्या समय मदनमोहन के सवार होनें के भरोसे वह दरवाज़े पर बैठा रहा परंतु मदनमोहन सवार न हुए इस्सै इस्का संदेह और भी दृढ़ होगया. शहर मैं तरह, तरह की हज़ारों बातें सुनाई देती थीं इस्सै वह आज सवेरे ही कई लेनदारों को साथ लेकर एकदम मदनमोहन के मकान मैं घुस आया और पहुंचते ही कहने लगा "साहब! अपना हिसाब करके जितनें रुपे हमारे बाकी निकलें हम को इसी समय दे दीजिये हमें आप का लेन देन रखना मंजूर नहीं है कल सै हम कई बार यहां आए परंतु पहरे वालों में आप के पास तक नहीं पहुंचने दिया."

"हमारा रुपया ख़र्च करके हमारे तकाज़े सै बचनें के लिये यह तो अच्छी युक्ति निकाली!" एक दूसरे लेनदार नें कहा "परंतु इस्तरह रक़म नहीं पच सक्ती नालिश करके दमभर मैं रुपया धरा लिया जायगा."

"बाहर पहरे चोकी का बंदोबस्त करके भीतर आप अस्वाब बांध रहे हैं!" तीसरे मनुष्य ने कहा "जो दो, चार घड़ी हम लोग और न आते तो दरवाज़े पर पहरा ही पहरा रह जाता लाला साहब का पता भी न लगता."

"इस्मैं क्या संदेह है? कल रात ही को लाला साहब अपनें बाल बच्चों को तो मेरठ भेज चुके हैं" चोथे नें कहा "इन्सालवन्सी के सहारे सै लोगों को जमा मारनें का इन दिनों बहुत होसला होगया है"

"क्या इस जमानें मैं रुपया पैदा करने का लोगों में यही ढंग समझ रक्खा है" एक और मनुष्य कहनें लगा "पहले अपनी साहूकारी, मातबरी, और रसाई दिखाकर लोगों के चित्त मैं