पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/२०३

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लोक चर्चा (अफ़वाह).
 

लगे "दफ़्तर मैं जाते थे जब तक तो ख़ैर अवकाश ही न था परन्तु अब क्यों नहीं आते?"

"हुज़ूर! मैं तो हरवक्त हाज़िर हूं परन्तु बेकाम आनें मैं शर्म आती थी आज आपनें याद किया तो हाज़िर हुआ फ़रमाइये क्या हुक्म है?" हीरालाल ने कहा.

"तुम ख़ाली बैठे हो इस्की मुझे बड़ी चिन्ता है तुह्मारे बिचार सुधरे हुए हैं इस्सै तुमको पुरानें हक़ का कुछ ख़याल हो या न हो (!) परन्तु मैं तो नहीं भूल सक्ता तुह्मारा भाई जवानी की तरंग मैं आकर नौकरी छोड़ गया परन्तु मैं तो तुम्हें नहीं छोड सक्ता. मेरे यहां इन दिनों एक मुहर्रिर की चाह थी सब सै पहले मुझको तुम्हारी याद आई (मुस्करा कर) तुह्मारे भाई को दस रुपे महीना मिलता था परन्तु तुम उस्सै बड़े हो इसलिये तुम को उस्सै दूनी तनख्वाह मिलेगी"

"जी हां! फिर आप को चिन्ता न होगी तो और किस्को होगी? आप के सिवाय हमारा सहायक कौन है? चुन्नीलाल नें निस्संदेह मूर्खता की परन्तु फ़िर भी तो जो कुछ हुआ आप ही के प्रताप से हुआ." "नहीं मुझको चुन्नीलाल की मूर्खता का कुछ बिचार नहीं है मैं तो यही चाहता हूं कि वह जहां रहै प्रसन्न रहै. हां मेरी उपदेश की कोई, कोई बात उस्को बुरी लगती होगी परन्तु मैं क्या करूं? जो अपना होता है उस्का दर्द आता ही है"

"इस्मैं क्या सन्देह है? जो आप को हमारा दर्द न होता तो आप इस समय मुझको घर सै बुलाकर क्यों इतनी कृपा करते? आपका उपकार मान्नें के लिये मुझ को कोई शब्द नहीं