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संगति का फल
 


लखनऊ से एक बजाज के यहां आई हैं सौगात में भेजने के लिये अच्छी हैं पसंद हों तो दो-चार ले आऊँ?"

"कीमत क्या है?”

वह तो पच्चीस-पच्चीस रुपये कहता है परन्तु मैं वाजबी कैराना लूँगा."

"बीस-बीस रुपये में आवें तो ये चार टोपियां ले आना.”

"अच्छा! मैं जाता हूँ अपने बस पड़ते तोड़-जोड़ में कसर नहीं रखूँगा." यह कह कर हरगोविन्द वहां से चल दिया.

"हुजूर! यह हिना का अत्र अजमेर से एक गंधी लाया है। वह कहता है कि मैं हुजूर की तारीफ़ सुनकर तरह-तरह का निहायत उम्दा अत्र अजमेर से लाता था परंतु रास्ते में चोरी हो गई सब माल अस्बाब जाता रहा सिर्फ यह शीशी बची है वह आप की नजर करता हूँ.” यह कह कर अहमद हुसैन हकीम ने वह शीशी लाला साहब के आगे रख़ दी.

“जो लाला साहब को मंजूर करने में कुछ चारा विचार हो तो हमारी नजर करो हम इसको मंजूर करके उसकी इच्छा पूरी करेंगे” पण्डित पुरुषोत्तमदास ने बड़ी वजेदारीसे कहा.

"नज़र तो सिवाय करेले के और कुछ नहीं हो सकता आपकी मरज़ी हो; मंगवायें?" हकीमजी ने जवाब दिया.

"करेले तुम खाओ, तुम्हारे घर के खायें हमको मुंह कड़वा करने की क्या ज़रूरत है? हम तो लाला साहब के कारण नित्य लड्डू उड़ाते हैं और चैन करते हैं” पण्डित जी ने कहा.

“लड्डू ही लड्डूओं की बातें करनी आती हैं या कुछ और भी सीखे हो?” मास्टर शिंभूदयाल ने छेड़ की.