सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२५
नैराश्य (ना उम्मेदी).
 


"जी कुछ नहीं, यह तो मिस्टर रसल की चर्चा थी" मुन्शी चुन्नीलाल नें बात उडानें के वास्ते गोल कहा.

"उस्का क्या देनलेन है? उस्का मामला अब तक अदालत मैं तो नहीं पहुंचा?" लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे.

"वह एक नीलका सौदागर है और उस्पर बीस, पच्चीस हजार रूपे अपने लेने हैं इस्समय उस्की नीलकी कोठी और कुछ बिस्वे बिस्वान्सी दूसरे की डिक्री मैं नीलाम पर चढे हैं और नीलाम की तारीख मैं केवल दो दिन बाकी हैं नीलाम हुए पीछै अपनें रुपे पटनें की कोई सूरत नहीं मालूम होती इस लिये ये लोग कहते थे कि गहना गिरवी रखकर उस्का कर्ज चुका दो परन्तु इतना बंदोबस्त तो इस्समय किसी तरह नहीं होसक्ता" लाला मदनमोहन नें लजाते, लजाते कहा.

"अभी आप को अपनें कर्जेका प्रबन्ध करना है और यह मामला केवल मुहलत लेनें सै कुछ दिन टल सक्ता है" लाला ब्रजकिशोर नें अपनें मनका संदेह छिपाकर कहा.

"मैं जान्ता हूं कि मेरा कर्ज चुकानें के लिये तो मेरे मित्रों की तरफ सै आज कल मैं बहुत रुपया आ पहुंचेगा" लाला मदनमोहन ने अपनी समझ मूजिब जवाब दिया.

"और मुहलत कई बार लेली गई है इस्सै अब मिलनी कठिन है" मास्टर शिंभूदयाल बोले.

"मैं खयाल करता हूं कि अदालत के विश्वास योग्य कारण बता दिया जायगा तो मुहलत अवश्य मिलजायगी" लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

"और जो न मिली?" शिंभूदयाल हुज्जत करनें लगा.