जहां सज्जन धनवानों की खुशामद सै दूर रहकर गरीबों का साथ देनें और सहायता करनें मैं सच्ची सज्जनता समझते हैं कठोर बचन दो तरह सै कहा जाता है जो लोग अपनायत की रीति सै कहते हैं उन्को कहनसै तो अपनें चित्तमैं वफादारी और आधीनता बढती है पर जो अभिमान की राहसै दूसरे को तुच्छ बनाते हैं उन्की कहनसै चित्तमैं क्रोध और धिःकार बढ़ता जाता है. हर तरह का घाव ओषधिसै अच्छा होसक्ता है परन्तु मर्म बेधी बात का नासूर किसी तरह नहीं सूझता. बिदुरजी नें सच कहा है "नावक सर धनु तीर काढे कढत शरीरते॥ कुवचन तीर गभीर कढत न क्यों हूं उर गढे॥ १"
निदान लाला मदनमोहन को यह कहना अत्यन्त असह्य हुई. वह तत्काल उठकर वहां सै चल दिये परंतु बैठक सै बाहर जाते, जाते उन्हें पीछेसै हरदयाल का यह वचन सुन्कर बडा आश्चर्य हुआ कि "चलो यह स्वांग (अभिनय) हो चुका अब अपना काम करो"
लाला मदनमोहन वहां से चलकर एक दूसरे मित्रके मकान पर पहुंचे और उस्सै अपनें आनेंकी ख़बर कराई वह उस्समय कमरे मैं मोजूद था परंतु उस्नें लाला मदनमोहन को थोडी देर अपनें दरवाजे पर बाट दिखानें मैं और अपनें कमरे को ज़रा मेज़ कुरसी, किताब, अखबार आदि सै सजाकर मिलनें में अधिक शोभा समझी इस लिये कहला भेजा कि "आप ठैरें लाला साहब भोजन करनें गए हैं अभी आकर आप से मिलेंगे" देखिये आजकलके सुधरे विचारोंका नमूना यह है! थोड़ी देर पीछे वह लाला मदनमोहनको लिवानें आया और बड़े शिष्टाचार सै लिवा