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परीक्षा गुरु
१८
 


तक नहीं पहचानते” लाला मदनमोहन को सुना कर चुन्नीलाल और शिंभूदयाल आपस में कानाफूसी करने लगे.

“भला इस समय इन बातों का कौन प्रसंग है? और मुझको बार-बार दिक करने से क्या फायदा है? मैं पहले कह चुका हूँ कि तुम्हारी समझ में आवे जैसा जमा ख़र्च कर लो. मेंरा मन ऐसे कामों में नहीं लगता" लाला मदनमोहन ने झिड़ककर कहा और जवाहरलाल वहां से उठकर चुपचाप अपने रास्ते लगे.

"चलो अच्छा हुआ! थोड़े ही में टल गई. मैं तो बहियों का अटंबार देखकर घबरा गया था कि आज उस्ताद जी बिना घिरे न रहेंगे” जवाहरलाल के जाते ही लाला मदनमोहन खुश हो-होकर कहने लगे.

“इनका तो इतना हौसला नहीं है परन्तु ब्रजकिशोर होते तो वे थोड़े बहुत उलझे बिना कभी न रहते” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा.

"जब तक लाला साहब लिहाज करते हैं तब ही तक उनका उलझना उलझाना बन रहा है नहीं तो घड़ी भर में अकल ठिकाने आ जायेगी" मुन्शी चुन्नीलाल बोले.

“हुजूर! मैं लाला हरदयाल साहब के पास हो आया उन्होंनें बहुत-बहुत करके आपकी खैरीआफियत पूछी है. और आज शाम को आप से बाग में मिलने का करार किया है" हरकिसन दलाल ने आकर कहा.

"तुम गए जब वो क्या कर रहे थे?” लाला मदनमोहन ने खुश होकर पूछा.