पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/२७१

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धोखेकी टट्टी.
 


यों भी लाला साहब सै बड़ी मित्रता जताया करता था उस्नें लाला साहब की चिट्ठी के जबाब मैं लिखा था कि "आप की जरूरत का हाल मालूम हुआ मैं बड़ी उमंग सै रुपे भेज कर इस्समय आपकी सहायता करता परन्तु मुझको बडा खेद है कि इन दिनों मेरा बहुत रुपया जवाहरात पर लग रहा है इसलिये मैं इस्समय कुछ नहीं भेज सक्ता आपनें मुझको पहले सैं क्यों न लिखा? अब जिस्समय मेरे पास रुपया आवेगा मैं प्रथम आपकी सेवा मैं जरूर भेजूंंगा मेरी तरफ सै आप भलीभांति विश्वास रखना और अपने चित्त को सर्वथा अधैर्य न होनें देना परमेश्वर कुशल करेगा" यह चिट्ठी उस कपटी नें ऐसी लपेट सै लिखी थी कि अजान आदमी को इस्के पढ़नें सै लाला मदनमोहन के रूप लेने का हाल सर्वथा नहीं मालूम होसक्ता था वह अच्छी तरह जान्ता था कि लाला मदनमोहनका काम बिगड़ जायगा तो मुझसें रुप मांगनें वाला कोई न रहैगा इस वास्तै उस्नें केवल इतनी ही बात पर सन्तोष न किया बल्कि वह गुप्त रीति सै मदनमोहन के विगड़नें की चर्चा फैलानें, और उस्के बड़े, बड़े लेनदारों को भड़कानें का उपाय करनें लगा. हाय! हाय! इस असार संसार मैं कुछ दिन की अनिश्चित आयु के लिये निर्भय होकर लोग कैसे घोर पाप करते हैं!!!

दुसरी चिट्ठी मदनमोहन के और एक मित्र (!) की थी वह हर साल आकर महीनें बीस रोज़ मदनमोहन के पास रहते थे इसलिये तरह, तरह की सोगात के सिवाय उनकी खातिरदारी मैं मदनमोहन के पांच सात सौ रुपे सदैव ख़र्च होजाया करते थे. उन्ने लिखा था कि "मैंने बहुत सस्ता समझ कर इस्समय एक