पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परीक्षागुरु.
२७२
 

अपना बूट गांठनें के लिये एक चमार को दिया तब उस्की गठवाईके पैसे उस्की जेबमैं न निकले इस्सै उसे लाचार होकर वह बूट चमारके पास छोड़ देना पड़ा. अरस्ततालीस नें लोगों के जुल्मसै विष पीकर अपनें प्राण दिये थे और अनेक विद्वान बुद्धिमान राजा महाराजाओं को कालचक्र की कठिनाई सै अनेक प्रकार का असह्य क्लेश झेल, झेल कर यह असार संसार छोड़ना पड़ा है इसलिये इस दुःख सागर मैं जो दुःख न भोगना पड़े उसी का आश्चर्य है जब अपनें जीनें का पलभर का भरोसा नहीं तो फिर कौन्सी बातका हर्ष बिषाद किया जाय यदि संसार मैं कोई बात बिचार करने के लायक है तो यह है कि हमारी इतनी आयु वृथा नष्ट हुई इस्मैं हमनें कौन्सा शुभ कार्य किया? परन्तु इस विषय मैं भी कोरे पछतावे के निस्बत आगै के लिये समझ कर चलना अच्छा है क्योंकि समय निकला जाता है तुलसी दास जी विनय पत्रिकामें लिखते हैं "लाभ कहा मानुष तन पाये। काय वचन मन सपने हुं कबहुंक घटत न काज पराये। जो सुख सुर पुर नरक गेह बन आवत विनहिं बुलाये। तिह सुख कहुं बहु यत्न करत मन समुझत नहीं समुझाये। परदारा पर द्रोह मोहबस किये मूढ मन भाये। गर्भ बास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये। भय निद्रा मैथुन अहार सबके समान जग जाये। सुरदुर्लभ तन धरिन भजे हरि मद अभिमान गंवाये। गई न निज पर बुद्धि शुद्धि हैरहे राम लयलाये। तुलसि दास यह अवसर बीते का पुनकै पछताये॥?" धर्म का आधार केवल द्रब्य पर नहीं है हरेक अवस्था मैं मनुष्य धर्म कर सक्ता है अलबत्ता पहले उस्को अपना स्वरूप यथार्थ जाना चाहिये यदि