पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७९
सच्ची प्रीति.
 

"भाई! तुम कहते हो तो मैं भी समझती हूं यह बालक मेरी आत्मा हैं और विपत्त मैं धैर्य धरना भी अच्छा है परंतु क्या करूंं? मेरा बस नहीं चलता देखो तुम ऐसे कठोर मत बनो" मदनमोहनकी स्त्री विलाप कर कहनें लगी" महाभारत मैं लिखा है कि जिस्समय एक कपोतनें अतिथि सत्कारके विचार सै एक बधिक के लिये प्रसन्नता पूर्वक अपनें प्राण दिये तब उस्की कपोती बिलाप कर कहनें लगी" हा! नाथ! हमनें कभी आपका अमंगल नहीं विचारा संतान के होनें पर भी स्त्री पति बिना सदा दु:ख सागर में डूबी रहती है भाई बंधु भी उस्को देखकर शोक करते हैं. आप के साथ मैं सब दशाओं में प्रसन्न थी पर्वत, गुफा, नदी, झर्ना, वृक्ष और आकाश मैं मुझको आपके साथ अत्यन्त सुख मिलता था परंतु वह सुख आज कहां है? पति ही स्त्री का जीवन है पति बिना स्त्री को जीकर क्या करना है" यह कहकर वह कपोती आग मैं कूद पड़ी फिर क्या मैं एक पक्षी सै भी गई बीती हूँँ? तुमसै हो सके तो सौ काम छोड़ कर पहलै इस्का उपाय करो न हो सके तो स्पष्ट उत्तर दो मुझ स्त्री की जातिसै जो उपाय हो सकेगा सो मैं ही करूंंगी. हाय! यह क्या ग़ज़ब है! क्या अभागों को मोत भी मांगी नहीं मिलती!”

“अच्छा! बहन! तुमको ऐसा ही आग्रह है तो तुम घर जाओ मैं अभी जाकर उन्कौ छुड़ाने का उपाय करता हूँँ" लाला ब्रजकिशोरनें कहा.

न जानें कैसी घडीमैं मैं मेरठ गई थी कि पीछेसै यह ग़ज़ब हुआ जिस्समय मेरे पास रहने की आवश्यकता थी उसी समय में अभाग़ी दूर जा पड़ी! इस दुःख है मेरा कलेजा फटता है मुझको