पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/७५

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सभासद.
 


कई वर्ष तो केवल अंग्रेजी भाषा सीखने में विद्या के द्वार पर खड़े-खड़े बीत गये जो अंग्रेजों की तरह ये शिक्षा अपनी देश भाषा में होती अथवा काम काम की पुस्तकों का अपनी भाषा में अनुवाद हो गया होता तो कितना समय व्यर्थ नष्ट होने से बचता है और कितने अधिक लोग उससे लाभ उठाते? परंतु प्रचलित रीति के अनुसार इसको सच्ची हितकारी शिक्षा नहीं हुई थी जिसपर अभिमान इतना बढ गया था कि बड़े-बूढ़े मूर्ख मालूम होने लगे और उनके काम से ग्लानि हो गई पर इस विद्वत्ता में भी सिवाय नौकरी के और कहीं ठिकाना न था भाग्य बल से मदरसा छोड़ते ही रेलवे की नौकरी मिल गई पर बाबूसाहब को इतने पर संतोष न हुआ वह और किसी बुर्द की ताक झांक में लग रहे थे इतने में लाला मदनमोहन से मुलाकात हो गई एक बार लाला मदनमोहन आगरे लखनऊ की सैर को गए उस समय इसने उनकी स्टेशन पर बड़ी खातिर की थी उस समय इनकी जान पहचान हुई. यह दूसरे तीसरे दिन लाला मदनमोहन के यहां जाता था और समा बांध कर तरह-तरह की बातें सुनाया करता था, इसकी बातों का मदनमोहन के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि वह इसको सब से अधिक चतुर और विश्वासी समझने लगा. अपनी युक्ति से चुन्नीलाल वगैरह को भी अपना बना रखा था पर अपने मतलब से निश्चिन्त न था, यह सब बातें जान बूझकर भी धृतराष्ट्र की तरह लोभ से अपने मन को नहीं रोक सका था.

खेद है कि लाला ब्रजकिशोर और हरकिशोर आदि के वृत्तान्त लिखने का अवकाश इस समय नहीं रहा. अच्छा फिर किसी समय विदित किया जायगा पाठकगण धैर्य रखें.