पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परीक्षा गुरु
८०
 


जाती है ऊपर दिखाने वाले लोग अपना निज स्वभाव छिपा कर सज्जन बनने के लिये सच्चे सज्जनों के स्वभाव की नकल करते हैं परंतु परीक्षा के समय उनकी कलई तत्काल खुल जाती है, उनके मन में विकास के बदले संकुचित भाव, सादगी के बदले बनावट धर्म प्रवृत्ति के बदले स्वार्थपरता और धैर्य के बदले घबराट इत्यादि प्रगट दिखने लगते हैं उनका सब सद्भभाव अपने किसी गूढ़ प्रयोजन के लिये हुआ करता है परंतु उनके मन को सच्चा सुख इसलिए सर्वथा नहीं मिल सकता.”


प्रकरण १२.
सुख दु:ख +

आत्मा को आधार अरु साक्षी आत्मा जान
निज आत्मा को भूलहू करिये नहिं अपमान *

मनुस्मृति.

"सुख दु:ख तो बहुधा आदमी की मानसिक वृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन है. एक बात से एक मनुष्य को अत्यंत दुःख और क्लेश होता है वही बात दूसरे को खेल तमाशे की सी लगती है इसलिये सुख दु:ख होने का कोई नियम नहीं मालूम होता” मुन्शी चुन्नीलाल ने कहा.


आत्मैव ह्यत्मन: साक्षी गति रात्मा तथात्मन:
भाव संस्था:स्वमात्मनं नृणां साक्षिण मुत्तमम्॥