पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परीक्षा गुरु
८२
 


जगमै पावत सोय+" जो लोग ईश्वर के बांधे हुए नियमों के अनुसार सदा सत्कर्म करते रहते हैं उनको आत्मप्रसाद का सच्चा सुख मिलता है उनका मन विकसित पुष्पों के समान सदा कर प्रफुल्लित रहता है जो लोग कह सकते हैं कि हम अपनी सामर्थ्य भर ईश्वर के नियमों का प्रतिपालन करते हैं, यथा शक्ति परोपकार करते हैं, सब लोगों के साथ अनीत छोड़कर नीतिपूर्वक सुहृद्भाव रखते हैं, "अतिशय भक्ति और विश्वास पूर्वक ईश्वर की शरणागति हो रहे हैं वही सच्चे सुखी हैं. वह अपने निर्मल चरित्रों को बारम्बार याद करके परम सन्तोष पाते हैं, यद्यपि उनका सत्कर्म मनुष्य मात्र न जानते हों इसी तरह किसी के मुख से एक बार भी अपने सुयश सुनने की सम्भावना न हो, तथापि वह अपने कर्तव्य काम में अपने को कृतकार्य देख कर अद्वितीय सुख पाते हैं उचित रीति से निष्प्रयोजन होकर किसी दुखिया का दुःख मिटाने को, किसी मूर्ख को ज्ञानोपदेश करने की एक-एक बात याद आने से उनको जो सुख मिलता है वह किसी को बड़े से बड़ा राज मिलने पर भी नहीं मिल सकता. उनका मन पक्षपात रहित होकर सबके हितसाधन में लगा रहता है इसका कारण वह सब के प्यारे होने चाहिये. परंतु मूर्ख जलन से, हठ से, स्वार्थपरता से अथवा उनका भाव जाने बिना उनसे द्वेष करे, उनका बिगाड़ करना चाहें तो क्या कर सकते हैं? उनका सर्वस्व नष्ट हो जाय तो भी वह नहीं घबराते; उनके हृदय में जो धर्म का ख़ज़ाना इकट्ठा हो रहा


यस्य वांगमनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा॥
सनै सर्व मवाप्नोति वेदान्तोपगतम्फलम्।।