बोलने लगे हैं तथापि शुरू शुरू में इनकी भाषा, इनके
रीति-रस्म और इनके रहन-सहन की छाया आर्यों की
सस्यता पर कुछ न कुछ ज़रूर ही पड़ी होगी। परन्तु
कितनी पढ़ी है, इसकी खोज अभी जारी है। पेरिस के
एक प्रलतत्ववेता ने इस विषय में बहुत कुछ प्रकाश
डाला है। उन्होंने इस बात के अखण्डनीय प्रमाण दिये
है कि संस्कृत-भाषा के कम्बल, शर्करा, क्दली, लाड् गृल,
लिङ्ग, लगुड और ताम्बूल आदि शब्दों का उद्भव
कोलों ही की भाषा के शब्दों से हुआ है । कोलों की
भाषा, उनके शरीर की गठन और उनके आचार-विचार
उन लोगों से मिलते-जुलते है जो भारतवर्ष के बाहर,
पूर्व की तरफ, अन्य देशों या द्वीपों में पाये जाते हैं-
उदाहरणार्थ इण्डोचायना, मलय-प्रायद्वीप, मेलानेशिया
और पालीनेशिया में । इससे सूचित होता है कि किसी
दूरतम काल में इन सभी देशों और द्वीपों में इस जाति
के लोगों का निवास था और भारतीय कोलों के पूर्वज
पूर्व ही दिशा से भारत में भाये थे।
परन्तु द्रविड़ देश के निवासी एक भिन्न ही जाति के मनुष्य है। उनकी भाषा, उनकी शक्ल-सूरत और उनके कुछ आचार-विचार न आर्यों ही से मेल खाते हैं और न कोलों ही से । तो क्या इन लोगों का सम्बन्ध बहिर्भारत के किसी अन्य देश या अन्य जाति से ॽ़ यदि