जानते हैं कि हमारे देश में नास सूँघा जाता है। परन्तु
सकालवा लोग उसे नाक से नहीं सूँघते। वे उसे मुँह में
डालते और धीरे धीरे चूसा करते हैं। वे बाँस काट कर
उसी की नासदानियाँ बनाते हैं।
हम लोगों की तरह सकालवा भी अपने अपने घरों में छप्पर छाते है। उनके छप्पर घास के होते हैं। दीवारें लाल मिट्टी की होती हैं। घरों के दरवाजे छोटे होते हैं; सीधा खड़ा होकर आदमी घर के भीतर नहीं जा सकता। जब कोई सकालवा किसी और के घर जाता है तब एक-दम घुसता नहीं चला जाता। वह दरवाजे पर रुक जाता है और खड़े खड़े आवाज़ देता है--"क्या मैं भीतर आ सकता हूँ?" यह सुनते ही गृहिणी उत्तर देती है--"शुभागमन। आइए।" यह कहती हुई वह बाहर निकल आती है और अभ्यागत को घर के भीतर ले जाती है। वहाँ वह उसे सादर बिठाती भौर आगमन का कारण इत्यादि पूछती है। ये लोग आतिथ्य करना खूब जानते हैं। अभ्यागतों का दिल कभी नहीं दुखाते।
सकालवा लोग चटाइयों बनाने में बड़े पटु हैं। ये
उसी पर बैठते और सोते हैं। उनके घर लम्बाई में
पन्द्रह बीस गज़ से अधिक नहीं होते। वे बहुत गन्दे
रहते हैं। कारण यह कि सोने, बैठने, भोजन बनाने,