पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

2 P पा, सब नष्ट हो गए। कोई कहता है कि सब बयाकरण विम्बाभित्र भाग विव+पमिव बनाकर उसके शापभाजन हुए, पाणिनि "मित्र १३०) बनाकर उसकी खुशामद की सपा वर पाया । पाणिनि को शिवकोप वा विश्वामित्रानुग्रह की मावश्यकता न थी, म्बय ही उमग माने मीर व्याकरण न ठहर सके । पाणिनि के व्याकरण में विशेषता क्या मई उपज का भाव दिखाने के लिये 'उपज्ञ' और 'उपक्रम' पद पाया करने . से दूरी पर तोस के नाप पहले पहल नद ( राजा ) ने बनाए । ही पाणिनि के लिये कहा जाता है कि अकालक व्याकरण पाणिनि पहले पहले पलाया' प्रर्षात् पहले क्रियापद ( पात्यात) के रूपोरो कालवाचक माम पाणिनि ने उन्हें हटाकर लट्, लिट् प्रादि नाम नलाए। यहाँ पाणिनि ने उस प्राकृतिक मौखिक दीर्घ का उल्लेख किया जो 'व' के साथ दूसरा पद मिलाने से हो जाता है। उसने विश्वासमु, शिकागद, विश्वानर पौर विश्वामित्र का उल्लेख किया है, गैवारी बोली में बनी विस्वानाप, भव तक होता है। उपशोपक्रम सदाचाविख्यासायाम् । (२१४१२१ ) नन्दोमाणि मानानि। १. पारिपन्यपसमकालकं (माकालापकं अशुद्ध पाठ है) वाम् । (काशिका )। ४. तेन सत् प्रथमत प्रणीत। स स्वस्मिन् व्याकरणे कालाधिकार नवान् (जिनेंदबुद्धि का न्यास ) भवन्ती ( पाणिनि का लट् ) परीक्षा (निट) भनयतनो भूता या एस्तनी (ला) पचतनी ( लुड) भविष्यन्ती (ड) पनघतनी, माविनी, श्वस्तनी ( लुट् ) मतिमर्गो ( लोट ) वि.पिका (नि). माशी (पाशीलिक) प्रतिपातिका (स)। नोट तथा लिको परमी या सप्तमी भी कहते थे जिससे सुबत विभक्तियों में गन- माल हो जाता होगा । पाणिनि ने इनके लिये वे नाम धरे से कोष्ठक में हैपीर वैविक (Subjunctive) को लेट् कहा । यह क्रम 'म' कार को 'हद पाराबड़ी पोर उसके पामेट यार का सकेत नमाकर कम में रचना मात्र पाणिनि की मा के बेटे सहकार मारि सामावल) ही रस सकारों मे', 'को जगह 'हुए ' लगाकर गए नाम बनाए साल बायुपा हुकरणम् (दुकरणं नही )। .. (110०-७५)