पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१०३

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15 १०२ .. पुरानी हिंदी ही किंतु जिसे कहनेवाले ने देखा हो, या जिसे वह कम से कम देख सकता था, परोक्ष या लिट् का प्रयोग बिलकुल आँख से ओझल वात के लिये पाता है । इसपर पतंजलि ने दो उदाहरण दिए है जो उसके समय को स्पष्ट वतलाते है--यवन ने साकेत को घेरा, यवन ने मध्यमिका को घेरा' । पतंजलि के समय में संस्कृत उस अर्थ मे भाषा न रही थी जिस अर्थ मे पाणिनि ने उमे भापा कहा है । वह एक गो शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका प्रादि अपभ्रशो का उत्लेख करता है,२ देवदिष्ण को देवदत्त से पृथक् करता है, प्राण्णवयंति, वट्टनि, बड्ढति, को धातुपाठ से अलग करता है, दृशि के लिये दसि और कृपि के लिये कसि का प्रयोग होना बतलाता है। साधु शब्दो के प्रयोग में आर्यावर्तवामी 'शिष्टो' की दुहाई देता है जो कुभीधान्य, अलोलुप आदि हो । सो पाणिनि की 'भाषा' अव"शिप्टो की भाषा' रह गई थी जिसके जानने में 'धर्म' होता था', पहले बहता पानी था, अव कुनां खोदनेवाले की तरह पहले अपशब्दो की धूल से ढके जाकर फिर शिष्ट प्रयोग के जल से शुद्धि मिलती थी। पतजलि ने कात्यायन के प्राक्षेपो का समाधान किया है। अनद्यतने लड़ें. ( पाणिनि ३१२।१११) लोकविज्ञोते "प्रयोक्तुर्दर्शन- विषये ( कात्यायन ) अरुणद् यवन' साकेतम्, अरुणद् 'यवनों मध्यमिकाम् । यह यवन मिनेडर ( मिलिंद ) था। इसी तरह पिछले वैयाकरणों ने उदाहरणो से अपना अपना समय बता दिया है। अजयद् गुप्तो हुणान् ( चद्रव्या०-वृत्ति ), प्रदहदमोघवर्षोरीतीन् (जैनशाकटायन), अंदहदरातीन कुमारपाल (हेमचद्र के व्याकरण की टीका मलयगिरिकृत ) । कई लोग बिना समझे इन्ही उदाहरणों को दोहरा गए है , जैसे, काव्यानुशासनवृत्ति मे हेमचंद्र 'अजयद् गुप्तो हूणान्। २ प्रथम आह्निक। ३ देवदिण्ण ( जैसे रामदलि, रामदीन )-द्वितीय प्राह्निक । पाणिनि १३।१. भूवादयो धातव' ५. वही। ६. पृपोदरादीनि यथोपदिष्टम् । ६३१०६ का भाष्य । प्रथम प्राह्निक ८. 'कूपखानकवत्'- --प्रथम श्राह्निक १ ४ पर।