पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१०६

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पुरानी हिंदी १०५ 'हस्' किया । समेटकर कहने का ढग (प्रत्याहार) तो उसी से लिण किंतु कुछ अक्षर इधर उधर किए । कही सक्षेप के लिये पाणिनि के मूत्र के पद उनटे पुलटे किए, कही कात्यायन के वार्तिक की नई वात मूव मे घुमेडी, कही एक मूत्र को तोडकर दो और कही दो को चिपकाकर एक कर दिया । उदाहरण देना येवल विस्तार करना है। इनका प्रचार तब तक और तैसा ही हुआ जब तक और ना स्वामी दयानद की 'नमस्ते' की रूढि के जमने के पहले 'सलामवालेकम्' ' वाम- स्सलाम' को देखादेखीराजा जयकृष्णदास आदि के चलाए परमात्मा जयति जयति परमात्मा का रहा था ! अपनी साख जमाने लिये अपने सप्रादाय को पुगना बनाने के लिये कई यल किए । पाणिनि के वैसा न कहने पर भी यह प्रनिति बन गई थी कि उसके प्रत्याहारसूत्र और उसका व्याकरण महेश्वर से पाया है। एक कहता है कि जब महावीर जिन कुमार थे, उस समय इद्र ने उससे प्रश्न करके जो च्या- कारण सीखा वही प्रश्नोत्तर हमारा जैनेंद्र व्याकरण है ' । 'मत पानी ने नीच', और 'लड्डुमो से सोच' का भेद न जाननेवाले राजा के लिये जो व्याकरण बनाया गया वह महेश्वर का नहीं तो महेश्वर के पुत्र कुमार का कहा गया । एक व्याकरण साक्षात् सरस्वती का सिखाया कहलाया। एक न पाणिनि के उल्लिखित पूर्वज शाकटायन के नाम पर अपनी कृति बनाई और उसकी विशेप बातो को अपने व्याकरण मे मिलाकर शाकटायनी रग देना चाहा, किंतु पूरी तरह बात छिपाई न जा सकी! पाणिनि ने तो मतभेद या प्रादग मे पुरुसो होता है, मागधी मे पुलिसे । सस्कृत मे तो 'स' ही काफी था। क्या यह मानें कि शौरसेनी 'प्राकृत' को 'संस्कृत' करनेवालो ने 'पुरुसों' देवकर' 'सु' माना, और मागधी के आधार पर सस्कृत करनेवालो ने पुलिस' पर निगाह जमाकर 'सि' माना? यह उल्टी गगा नहीं है, सस्कृत के पास्तव रूप को मूलभित्ति की कल्पना है । १ यदिद्राय जिनेंद्रेण कौमारेऽपि निरूपितम् । ऐंद्र जैनेद्रमिति तत्पर शब्दानुशासनम् । २. शर्ववर्मन् का कोमार या कालाप व्याकरण-'मोदक मिन मा राजन् । ३ अनुभूति स्वरूपाचार्य का सारस्वत । ४. जैन या अभिनवशाकटायन दक्षिण के राठोड राजा अमोघवर्ष के यहां का। ईसवी नवी शताब्दी का प्रत उसका काल है । ५ जैसे पाणिनि कहता है कि मेरे मत में 'प्रयान्' होता है, जापटान के