पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/११

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पुरानी हिंदी ही की जानी चाहिए, पुराने प्राचार्यों के अनुसार अतर्वेदी से नही । इस महोदय की केंद्रता को ध्यान में रखकर उसका बताया हुआ राजा के कवि- समाज का निवेश बडा चमत्कार दिखाता है । वह कहता है कि राजा कवि- समाज के मध्य मे बैठे, उत्तर को सस्कृत के कवि (कश्मीर पाचाल) पूर्व को प्राकृत (मागधी की भूमि मगध), पश्चिम को अपभ्रश (दक्षिणी पजाव और मरुदेश) और दक्षिण को भूतभापा (उज्जन, मालवा आदि) के कवि बैठे। मानो राजा का कविसमाज भौगोलिक भाषानिवेश का मानचिन्न हुआ। यो कुरुक्षेत्र से प्रयाग तक अतर्वेद, पाचाल और शूरसेन, और इधर मरु, अवती, पारियान और दशपुर-शौरसेनी और भूतभापा के स्थान थे। अपभ्रश बांध से बचे हुए पानी की धाराएँ मिलकर अब नदी का रूप धारण कर रही थी। उनमे देशी की धाराएँ भी आकर मिलती गई । देशी और कुछ नहीं, बाँध से बचा हुआ पानी है या वह जो नदी मार्ग पर चला आया, बाँधा न गया । उसे भी कभी कभी छानकर नहर में ले लिया जाता था। बांध का जल भी रिसता-रिसता इधर मिलता आ रहा था । पानी बढने से नदी की गति वेग से निम्नाभिमुखी हुई, उसका 'अपभ्रश (नीचे को विखरना) होने लगा। अब सूत से नपे किनारे और नियत गहगई नहीं रही। राजशेखर ने 'सस्कृत वाणो को सुनने योग्य' प्राकृत को स्वभावमधुर, अपभ्रश को सुभव्य और भूतभाषा को सरस कहा है ।'३ इन विशेपणो को साभिप्रायता विचारने योग्य है। वह यह भी कहता है कि कोई बात एक भाषा मे कहने से अच्छी लगती है, कोई दूसरी में, कोई दो तीन मे । उसने काव्यपुरुष का शरीर शब्द और अर्थ का बनाया है जिसमे सस्कृत को मुख, प्राकृत को बाहु, अपभ्रश को जघनस्थल, पंशाच को पर और मिश्र को उम कहा है। विक्रम की सातवीं . १ विनशनप्रयागयोगङ्गायमुनयोश्चान्तरमन्तर्वेदी। तदपेक्षया दिशो विभ- जेत इत्याचार्या । तत्रापि महोदय मूलमवधीकृत्य' इति यायावर. । (काव्यमीमासा, पृ०६४) २. काव्यमीमासा, पृ० ५४-५५ । ३. बालरामायण ४. काव्यमीमासा, पृ० ४८ ।