पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१२

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पुरानी हिदी ७ शताब्दी से ग्यारहवी तक अपभ्रश की प्रधानता रही और फिर व्हपुरानी हिंदी मे परिणत हो गई । इसमे देशी की प्रधानता है। विभक्तियां धिम गई है, खिर गई है, एक ही विभक्ति है, या आहे कई काम देने लगी हैं। एक कारक की विभक्ति से दूसरे का भी काम चलने लगा है। वैदिक भाषा की अविभनिक निर्देश की विरासत भी इसे मिली। विभक्तियो के खिर जाने ने कई अव्यय या पद लुप्त विभक्तिक पद के प्रागे रखे जाने लगे, जो विक्तियां नहीं है। प्रियापदी मे मार्जन हुआ। हाँ, इसने केवल प्राकृत ही के तद्भव और तत्सम पद नही लिए, किंतु धनवती अपुना मोसी से भी कई तत्सम पद लिए' साहित्य की प्राकृत साहित्य की भाषा ही हो चली थी, वहाँ गत भी गय और गज भी गय, काच, काक, काय = (शरीर) कार्य सबके लिये काय । इममे भाषा के प्रधान लक्षण-सुनने से अर्थवोध-~का व्याघात होता था। अपभ्रश में दोनों प्रभार के शब्द मिलते है । जैसे गौरसेनी, पैशाची, मागधी प्रादि भेदो के होते हुए भी प्राकृत एक ही थी वैसे शौरसेनी अपनश, पंशाची अपभ्रश, महााट्री अपना आदि होकर एक ही अपभ्रश प्रवल हुई। हेमचद्र ने जिन अपभ्रश का वर्णन किया है वह शौरसेनी के आधार पर है। मार्कडेय ने एफ. नागर' अपनश की चर्चा की है जिसका अर्थ नगरवासी 'चतुर, शिक्षिन, गवई मे विपरीत)लोगो या गुजरात के नागर ब्राह्मणो या नगर (वडनगर, वृद्ध नगर) मे. प्रात की भाषा हो सकती है। गुजरात की अपभ्रमप्रधानता की चर्चा नागे है। कितु उसके उस नगर का वडनगर या नगर नाम प्राचीन नहीं है इसलिए 'नगर की भाषा' अर्थ मानने पर मार्कडेय के व्याकरण की प्राचीनता मेगा होती है। राजशेखर ने काव्यमीमामा में कई श्लोक दिए है जिनमे वर्णन किया है, कि किस देश के मनुष्य किस तरह सस्त और प्राकृत पट सकते है। यहां न पाठशैली के वर्णन की चर्चा कर देनी चाहिए। यह वर्णन रोचक भी है और कई शो में अबतक सत्य भी। उच्चारण का टग भी कोई चीज है। व्ह की भाषा, १ तद्भव प्रयोगो के अधिक घिस जाने पर भापा में एका प्रवन्या मानी है जव शुद्ध तत्समो का प्रयोग करने को टेव पड जाती है। हिंदी में प्रद कोई जस या गुनवत नही लिखता यश और गुणवान् लिखते हैं । यो चाहे तरो, परसोतम् और हकिनुन, लिखेगे तरह, पुनपोत्तम पौर हरकृष्ण।