पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१२०

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पुरानी हिंदी ११६ अधिक खोज होने पर इनमे से कई दूसरी तीसरी पीढी तद्भव निट होगा। हेमचद्र ने देशी का वैज्ञानिक विवेचन नही किया अपनी देगी नाममाता में जो क्या लिया है, क्या नही लिया, इसका उल्लेख वह पी करता है--(१) लक्षण ग्रथ (मिद्धमशब्दानुशामन ) में प्रकृतिप्रत्यय प्राति निमें सिद्ध नहीं किए गए वे यहां लिए गए हैं, (२) जो शानु वयान 17 कोणकारो ने देशी मे गिने हैं किंतु जिन्हें हमने धातुओं के प्रादेन माना की लिए गए, (३) जो प्रकृतिप्रत्यय विभाग से मन ही मिला: किंतु सस्कृत कोशो मे प्रसिद्ध नहीं है वे यहां लिए गए है प्रम- निर्गम - चद्र, छिन्न-उद्भवा = दूब, महानट = शिव प्रत्यादि (८) जोमान के कोशो मे नहीं है, किंतु गौण लक्षणा या शक्ति ने जिनका अयं बैठ जाता. मे वल्ल (= बैल)=मुर्ख, वे नहीं लिए गए। फिर वह कहना है कि महाराष्ट्र, विदर्भ, आभीर आदि देशो जो शब्द प्रमिद्ध है (जैमे मगा=पीछे, मिग- पार ) उन्हें गिना जाय तो देशो के अनत होने पुरुषायुप मे भी उनका गा गाना सकता इसलिये 'अनादि प्रसिद्धप्राकृतभापाविशेष' ही देशी बहा गर । अपनी पुष्टि मे एक पुराना श्लोक उद्धृत किया है कि दिव्य युगमहल में वाचत की बुद्धि भी इसमे समर्थ नहीं हो सकती कि देशो मे प्रसिद्ध शब्दो की पूरी नमः चुन सके । इससे स्पष्ट है कि मनमानी की गई है, २ सस्तृत प्रयोग पो प्रमा १. देशी नाममाला, गाथा २-३, मिलायो पतजलि-'यहम्पनि नेपोपिय वर्षसहस्र शब्दपारायण कराया किंतु प्रत नपाया । वृक्षम्पनि मा परमेयाता, इद्र पढ़नेवाला, दिव्य वर्षसहस्र अध्ययनकाल, तो भी मन न पाया या जो बहुत जीवे वह सौ वर्ष जीवे इत्यादि (प्रथम प्रालिक)। २. वैयाकरणो की मनमानी से पुरानी लिखने की रीति भी नष्ट हो गई। पोथियो के लिखनेवाले 'शोध शोध' कर लियने लगे उनी मेक्षिरासीमा की पुस्तको मे पुराने पाठ मिलते है उत्तर की पुस्तका में वे 'मुधार nिg है (वार्नेट, ज० रा. ए. सो०, अक्टोबर, १९:१) मो. प्रताप से 'मृगनेन्नासु रानिपु' का 'सुगतंतामु रात्रि' हो गया (प्रतिभा, वर्ष ३)। भागवत के दक्षिणी वैष्णव ने मे जो वैदिक प्रयोग (मा) है उन्हें बदलार यांमार दिया है, श्रीधरस्वामी ने भागवत को 'गुन' रिचा प्रचीनता का लोप अपने हाथो नही किया।