पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१२१

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१२० पुरानी हिंदी मानकर कोशो को माना है । क्या हुआ जो अमृतनिर्गम और महानट चद्रमा और शिव के अर्थ में संस्कृत कोशो मे नहीं दिए ? प्रकृतिप्रत्यय विभाग और शक्ति, रूढि आदि से वे सस्कृत ही है । यो (३) और (४) मे परस्पर विरोध पाता है। सस्कृत मे 'अप्रयुक्त' का विचार करते हुए पतजलि ने कहा है कि उप- लब्धि मे यत्न करो।' शब्द का प्रयोगविषय बडा है । सात द्वीप की पृथ्वी, तीन लोक, चार वेद, अग और रहस्य सहित, उनके बहुत से भेद, १०० शाखा अध्वर्युवेद की, सामवेद के १००० मार्ग, २१ तरह का वाच्य (ऋग्वेद), नी तरह का अथर्वण वेद, वाकोवाक्य, इतिहास, पुराण, वैद्यक, इतना शब्द का प्रयोगविषय है । इतने शब्द के प्रयोगविषय को विना सुने विचारे शब्द अप्रयुक्त हैं, यह कहना साहस मात्र है ( पहला आह्निक) । ऐसे ही (१) (२) मे विरोध आता है । धातुओ मे हेमचद्र ने बडा अद्भुत काम किया है । एक धातु प्रधान मान लिया है उसी अर्थ के और धातुओ को उसका आदेश मानकर झगडा त किया हैं। जैसे, कहई (कथयति) धातु माना। अब वज्जरइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुणाइ सघइ, बोल्लइ, चवइ, जपइ, सीसइ, साहइ को विकल्प से, 'कहइ' का आदेश कह दिया है ।' उन्बुक्कइ को इनमे नहीं गिना क्योकि उसे उत् + बुक्क से निकला माना है। यों देखा जाय तो वज्जरइ उच्चरति से, पज्जरइ प्रोच्चरति से, फिसुणइ पिशुनयति से, सघई सख्याति से, जपइ जल्पति से, निकल सकता है ! फिर हेमचद्र लिखते हैं 'पौरो ने इन्हे देशी शब्दो मे पढ़ा है किंतु हमने इन्हें धात्वादेश कर दिया कि विविध प्रत्ययो मे प्रतिष्ठित हो जायें, ऐसा करने से वज्जरिओ कथित, वज्जरिऊण = कथयित्वा आदि हजारो रूप सिद्ध हो जाते हैं। यह तो मनमानी हुई । या तो इन्हें स्वतन धातु मानते, या इनमे तद्भव और देशी की छोट करते । वैयाकरणो के स्वभाव से हेमचद्र कहते है कि हमने इन्हे आदेश इसलिये गिना है कि इनसे प्रत्यय हो सकें, ये विविध प्रत्ययो मे प्रतिष्ठित हो जायें । पतजलि वैयाकरणो को सावधान कर गए हैं कि 'जैसे' घड़े से काम होने पर लोग कुम्हार के यहां जाते है कि हमे घडा बना दे, बैसे शब्द का काम पड़ने पर कोई वैयाकरण के यहाँ नहीं जाता कि भाई हमे काम है, शब्द गढ ३२ किंतु वैयाकरण समझते हैं कि विना उनके प्रति- १ ८१४॥२॥ २. . पहला माह्निक । -