पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१२९

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१२८ पुरानी हिंदी यह किसी पुरानी रामायण से है ! दशमुख (रावण), भुवन-भयं- कर, तोपितशकर, निर्गत (=निकला), रथवर. पर, चढा हुआ, चौमुख (ब्रह्मा) को, छह मुख ( == कार्तिकेय) को, ध्यान करके, एक मे, लाकर, मानो देव, ने घड़ा(था वह ) । ब्रह्मा के चार और स्वामिकार्तिक के छह, यो दस मुंह मानो देव ने एक मे मिलाकर उसे बनाया था। रिंगरंगउँ, चडियउ, घडियउ-निगयो, चढियो, घडियो। झाइवि, लाइवि-घ्या (न) कर, लाकर । णावइ, मानो, (स० ज्ञायते) मिलानो नाइ, नाउ, मारवाड़ी न्यू', उपमा में नावइ, नावें उत्प्रेक्षा मे और वैदिक उपमावाचक । (६) अगलिअ- नेह-निवट्टाह जोमण-लक्खुवि जाउ । वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खह सो ठाउ । न गले हुए नेह से निबटे हुओ का ( = को ), योजन लाख भी जाकर, सौ वर्ष से, भी, जो, मिलता है, हे सही ( सखी), सौख्य का, वह, व (है) । सच्चा प्रेम देश और काल के बंधन नहीं मानता । जो भग- लित स्नेह मे पगे हैं उन्हें लाख योजन चलकर सौ वर्ष में भी जो (नायक या नायिका ) मिले तो सौख्य का वही स्थान है । जाउ-पूर्वकालिक । अङ्गहि अङ्ग न मिलिअउ हलि अहरे प्रहरु न पत्तु । पिन जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्बई सुरउ समत्तु अंग से, अग, न, मिला, हाल, अधर ने, अधर, न प्राप्त ( किया), पिया का, जोहती ( हुई ) का, मुख कमल, यो ही, सुरत, समाप्त (हुआ)। यहाँ पर 'पिय जोअन्तिहे मुहकमलु' का अर्थ "पिय का मुखकमल जोहती हुई का' किया गया है । दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि पिय; को देखती हुई का मुख कमल यो ही सुरा (मद) से समत्त (मस्त ) हो गया । पहले में 'पिन'- का दूर के 'मुहकमलु' से सवधकारक मानकर "मुहकमलु को 'जोअन्तिहे' का कर्म माना है, दूसरे मे पिन' को 'जोहन्तिहे' का कर्म और मुहकमलु को कर्ता । दोधकवृत्ति के कर्ता ने पहला अर्थ माना है किंतु इस विशुद्ध Platonic प्रेम के चित्र को कहकर वीभत्स कर दिया है कि अतिरसाति- रेकात् संभोगात् पूर्वमेव द्राव इति भाव : इसके बिना कौन सा अर्थ नही लतो था ? एम्वइ-पजावी एवें, योही । Ti . .