पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१३

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पुरानी हिंदी कहता है कि काशी से पूर्व की ओर मगध श्रादि देशो के वासी हैं वे संस्कृत ठीक पढते हैं किंतु प्राकृत भापा मे कुठित हैं । वगालियो की हंसी मे उसने एक पुराना श्लोक उद्धृत किया है जिसमें सरस्वती ब्रह्मा से प्रार्थना करती है कि मैं बाज आई, मै इस्तीफा पेश करती हूँ, या तो गोड लोग गाथा पढना छोड दें, या कोई दूसरी ही सरस्वती बनाई जाय । गौड देश मे ब्राह्मण न अनिस्पष्ट, न पश्लिष्ट, न रूक्ष, न अति कोमल, न मद और न अतिसार स्वर से पढते हैं। चाहे कोई रस हो, कोई रीति हो, कोई गुण हो, कर्णाट लोग घमड से अंत मे टकारा देकर पढ़ते हैं । गद्य पद्य, मिश्र कैसा ही काव्य हो द्रविड कवि गा कर ही पढेगा । सस्कृत के द्वेपी लाट प्राकृत को ललित मुद्रा से सुदर पढ़ते हैं । सुराष्ट्र, ववरण आदि मस्कृत मे अपभ्रश के अश मिलाकर एक ही तरह पढते हैं । शारदा के प्रसाद से कश्मीरी सुकवि होते हैं किंतु उनका पाठक्रम क्या है कान मे मानो गिलोय की पिचकारी है । उत्तरापथ के कवि बहुत संस्कार होने पर भी गुन्ना ( नाक मे ) पढते हैं । पाचाल देशवालो का पाठ तो कानो मे शहद वरसाता है उसका कहना ही क्या' । पुरानी अपभ्रंश सस्कृत और प्राकृत से मिलती है और पिछलो पुरानी हिंदी से । हम ऊपर दिखा चुके है कि शैरसेनी और भूतभाषा को भूमि $ १ ब्रह्मन् विज्ञापयामि त्वा स्वाधिकारजिहासया । गोडस्त्यजतु वा गाथामन्या वास्तु सरस्वती ॥ २ सोरठ-गुजरात काठियावाड । ३ पश्चिमी राजपूताना । जोधपुर के राजा वाडक के त्रि० स० ८६४ के शिलालेख मे उसके चौये पूर्वपुरुप शिलुक का लवणो और वल्ल देश तक अपने राज्य की सीमा नियत करना कहा गया है। वल्ल देश भाटियो का जैसलमेर हे, नवरयो उसके दक्षिण में होना चाहिए। ४ मार्गानुगेन निनदेन निधिर्गुणानाम् , सपूर्णवर्णरचनो यतिभिविभक्त.। पाञ्चालमण्डलभुवा सुभग कवीना श्रोन्ने मधु क्षरति किञ्चन काव्यपाठ ॥