पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१३२

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पुरानी हिंदी १३१ -- " (१५) दइबू घडावइ वरिण तरहुँ, सउरिणहं पक्क फलाई । सो वरि सुक्खू पइ णवि कण्णहिं खलवयणाई ॥ देव-घटित करता ( पहुंचाता, जुटाता) है, वन मे, वृक्षो के, पक्षियों के ( को), पक्व फलो को, सो, वरन, सुख ( है ), प्रविष्ट, नहीं ( सुखदायक हैं.), कानो मे, खलवचन । वन मे पक्षियो को देव के जुटाए पक्के वृक्षो के फल भले किंतु कानो मे घुसे खलवचन भले नहीं। भर्तृहरि के एक प्रसिद्ध श्लोक का भाव है। घडावइ-स० घटयति । सउणि-स० शकुनि । वरि-वर, वरन् । सुक्खु-सौख्य । पइट-पैठा। रणवि-न+अपि । (१६) धवलु विसुरइ सामिअहो गरुमा भरु पिक्खेवि हउँ कि न जुत्तउ दुई दिसिहि खण्डइ दोणि करेवि।। धवल, विसूरता है,, स्वामि का, गुरु, भार, देखकर, मैं, क्यो, न, जोता ( गया ), दोतो, दिशाओ मे, खड, दो, करके । धवल का अर्थ श्वेत है किंतु रुढि इसकी 'धोरी' या धुर खेचनेवाले प्रवल गाड़ी के बैल में हैं। हेमचद्र के देशी नाममाला-मे धवल का अर्थ किया है कि जो जिस जाति मे उत्तम है- वही-धवल है। धवल की दृढता और स्वामिभक्ति पर कई- मुक्तक काव्य संस्कृत तथा प्राकृत सुभापितो मे मिलते हैं । - - यहाँपर वोझ बहुत है, एक और घवल' जुता है, दूसरी ओर कोई मरियल, अडियल बैल है। धवल स्वामी की भारी खेप देखकर विलाप कर रहा है कि दोनो ओर दो टुकड़े करके मुझे ही क्यो न जोत दिया ? पिक्खेवि, करेवि- पूर्वकालिक । जुत्त-युक्त (सं० ), जोता । दोण्ण-दो, मराठी दोन । (१७) गिरिहे सिलायलु तरुहे फल धेप्पइ नीसान्नु । घरु मेल्लेप्पिणु माणुसह तोवि न रुन्चइ रन्नु । गिरि से, शिलातल, तरु से, फल, ग्रहण किया जाता है, नि सामान्य (विना भेद भाव), घर, छोड़कर, ( मनुष्य से ), मनुष्यो को, तो भी, न रुचता है, अरण्य ।। मेल्लेप्पिण-छोड़कर, रन्न-अरण्य । १ । T