पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१३८

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पुरानी हिंदी १३७ भद्दवउ । 13 TE (३७) एक्कहिं अक्खिहि सावणु अन्नहि माहउ महिअल-सत्थरि - गण्डत्थले सरउ ॥ अङ्गिहिं गिम्ह सुहच्छी-तिल-वरिण-मग्गमिरु । तहे मुद्धहे मुह-पडका आवासिउ सिसिरु ।। एक मे, आँख मे, सावन, प्रान ( = दूसरी) मे, भादो, माधव ( = वसत) मही-तल कीसाथरी मे, गडस्थल -(कपोल) मे शरद, अगो मै ग्रीष्म, सुख-बैठक ( रूप ) तिलवन मे, मॅगसिर, उस ( के ), मुग्धा के, मुख-पकज मे, आवासित ( है ), शिशिर । वियोगिनी की अवस्था है, सावन भादो पाखो मे पासू झरने. से, सायरी मे नए नए पत्ते विछाने से वसत, कपोल मे पाडुता ( पीलापन) होने से शरद, अग सूखने से ग्रीष्म, मंगसिर मे तिलो के खेत कट जाते हैं इसलिये वे उजडे से दीखते है, वैसे ही सुख की बैठक नही रही, शिशिर मे कमल मुरझा जाते है। सत्यर-साथरा तुलसीदास । सुहच्छी खासिका, स० सूखस्थिति यह भी 'युग्म नहीं है, एक छद है। (३८) हियडा फुट्टि , तडत्ति करि, कालक्खेवे काइ। देक्खउ हय-विहि कहि ठवइ पई विण दुक्ख सयाई॥ हे हिय ', (तू) फूट, तडत-इति, करके, कालक्षेप से क्या देखू, हत-विधि कहाँ, स्थापन करे, मुझ विन, दु खशतो को? मेरा हिया ही सैकडो दुःखो का आधार है, वह फट जाय तो देखें मुना विधि मुझे छोड कर उन्हें कहां धरता है? तडत्ति-देखो ऊपर (३२), कालक्खेव-समय विताना । ठवइ-(स०) स्थापयति । पइ-मैं। (३६) कन्तु महारउ होल सहिए निच्छा रूमइ जासु। अस्थिहिं सथिहि हत्यिहि वि ठाउवि फेडइ ताम्॥ कत, मेरा, हला सखी | निश्चय से, सता है, जिसके (जिसपर), अर्थों से, शस्त्रो से, हाथो से भी, ठाव भी फेटता है, उसका । महारउ-महारो, म्हारो। हलि-सवोधने । रुसइ-रोप करता है । अत्य-धन। दोषक वृत्ति का कर्ता जैन पंडित कहता है अर्थ-शब्दार्थो से भी । फेडइ-फेटता है, फेंट में लेता है, घेरता हैं, ढहा देता है। }