पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१४६

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पुरानी हिंदी १४५ ( ६७ ) चप्पीहा कइ वोल्लिएण निग्घिण वारइवार। सायरि भरियइ विमल जलि लहहि न एक्कइ धार । पपीहा क्या, बोलने से, हे निघृण', वार बार सागर मे, भरे मे, विमल जल से, पाता है, न, एक भी, धार । श्रायहि जम्महि अन्नहि वि गोरि सु दिज्जहि कन्तु । गय मत्तह चत्तडकुसह जो अभिडहि हमन्तु ॥ इसमे, जन्म मे, अन्य मे, भी, हे गौरि, सो, दोज, कंत ( मुझे ) गजो, मत्तो, त्यक्ताड कुशो को (से), जो पा+भिड, हँसता हुआ । पाय-यह, चत्त- त्यक्त, अभिडहि-सामने प्रावे, आ भिड़े । (६६) बलि अन्भयरिण महुमहण लहुईहूआ सोइ । जइ इच्छह बड्डत्तणउ देहु म मग्गहु कोइ ।। बलि (के या से), अभ्यर्थन ( मांगने ) मे, मधुमथन ( मधु दैत्य को मारनेवाले विष्णु ), लघु हुए, वह भी, यदि, चाहते हो, बडापन (तो) दो मत मागो, कोई । लहुईहूया-लघुकीभूत, बड्डत्तरप-बड़ापन । (७०) विहि विनडउ पीडन्तु गह में धणि करहि विसाउ । सपइ कड्ढउं वेस' जिवं छुडु अग्घई ववसाउ ॥ विधि, नट जाओ, पीडा दें, ग्रह, मत, हे धन ( - प्रिये ), करो, विषाद, संपत्ति को, काढता हूँ, वेश(को), तरह यदि, चलता है, व्यवसाय । विनडउ- नटै, नाचे, या नाही करे, धन- प्रिया, देखो ऊपर (१), मिलामो मिरजापुरी कजलियो को 'धनिया', वेस-दोधकवृत्ति के अनुसार वैश्या, छुडु-यदि, अग्घइ-अर्घति, मोल पाता है। (७१) खग्ग-विसाहिउ जहि लहहुँ पिय तहिं देसहिं जाई । रणदुमिक्खे भग्गाई विण जुझे न वलाहुँ । पु० हिं० १० (११००-७५)