पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१४७

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१४६ पुरानी हिंदी खड़ा से, भी, साधित, जहां, पावे , प्रिय । उस, देश को, जावे, रणदुर्भिक्ष मे, भांगे (हम), विना, युद्ध (के) नही, प्रसन्न होते । जहाँ खङ्ग चलाकर जीविका निर्वाह कर सके वहाँ तो रणदुर्भिक्ष से (दिल) टूट गए विना युद्ध के मानद नही पाता। भगाई-भग्न, वलाहु-न रति प्राप्नुम (दोधक- वृत्ति) यह अर्थ उसी के अनुसार है किनु कुछ खटकता है । रण दुर्भिक्ष मे भागे हैं, विना युद्ध के न लौटे गे (जैसे दुमिश के कारण देश से भागे विना सुभिक्ष नही लौटते )-यह अर्थ अच्छा है । (७२) कुमार सुमरि म सल्लइउ सर सास म मेल्लि । कवल जि पाविय विहिवसिण ते चरि मारण म मेल्लि ।। हे कुजर, स्मरण कर, मत, सल्लकियो ( एक प्रकार की वेलो) को, सरल (लवे) रख । साँस, मत, छोड, कौर जो पाए विधिवश से, उन्हें चर, मान, मत दोधकवृत्ति के अनुसार मेल्लि का दोनो जगह 'छोडना' अर्थ करने से निरर्थक वाक्य हो जाता है कि सल्लकी को याद मत कर, उसास मत ले, जो मिलता है उसे चर और मान मत छोड । सास न मेल्लि अर्थात् सांस मत ले, दूसरा मेल्लिर (७३) भमरा एत्थु वि लिम्बडइ केवि दियहडा विलम्बु भण-पत्तलु बहुलु फल्लहि जाम कयम्बु ॥ हे भौरा यहाँ, भी, नीवडी मे, कुछ दिन, विलय कर, धने पत्तोवाला, बहुत छाया वाला, फूल, जब तक कदंव । एत्थं पजाबी इत्यु, इत्यै, स० अन्न, दियहडा-दिवस, पत्तलु-पत्तेवाला, जाम-यावत् देखो ८१, ६५ । (७४) पिय एम्वहिं करे सेल्लु करि छड्डहि तुहु करवालु । ज कावालिय वप्पुडा लेहि अभगू कवालु ॥ हे प्रिय । अब, कर मे, सेल, करो, छोडो, तुम तरवार, ज्यो कापालिक, बापुरे, लेवे, अमग्न (= अखडित) कपाल । तुम्हारे खड्ग से शत्रुओ के सिर फट जाते है, कापालिको को सावत खप्पर नही मिलते इसलिये तुम- सेल से मारो जिससे खोपडी सावत तो मिले । -रख। छाया T --